जिस ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में फेसबुक और सत्ताधारी दल को लेकर छपी रिपोर्ट पर भारतीय मीडिया का ‘अंडरवर्ल्ड’ गैंग बौद्धिक जुगाली कर रहा है, वही ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ अपनी विश्वसनीयता के संदेह के घेरे में है. इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह और कोई नहीं बल्कि उनके यहाँ काम कर रहे कुल 280 रिपोर्टरों, संपादकों और विभिन्न कर्मचारियों ने लगाया है.
21 जुलाई, 2020 को ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ ने छपी खबर के मुताबिक, सभी कर्मचारियों ने मिलकर डॉव जोन्स कंपनी के सीईओ आल्मर लाटुर को एक पात्र सौंपा इस पत्र में इस बात की शिकायत दर्ज कराई गई कि जर्नल के ‘ओपिनियन’ सेक्शन में गलत जानकारी (missinformation) दी जा रही है
मगर, भारतीय मीडिया का ‘अंडरवर्ल्ड’ जर्नल मे ‘ओपिनियन सेक्शन’ में प्रकाशित सामग्री को सत्य मानकर अपने तमाम प्लेटफ़ॉर्म पर बौद्धिक जुगाली कर रहा है और फेसबुक के साथ-साथ केंद्र की सत्ताधारी दल को निशाना बना रहा है. गौरतलब है कि भारतीय मीडिया का ‘अंडरवर्ल्ड’ जिस विचार पर इतना गरमागरम बहस कर रहा है, उसे न्यूले पुर्नेल और जेफ्फ होर्वित्ज़ ने लिखा है और उसका शीर्षक है, ‘फेसबुक हेट स्पीच कोलाइड विद इंडियन पॉलिटिक्स’
‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में काम कर रहे समूह ने अपने पत्र में आरोप लगाया था कि जर्नल के समाचार पक्ष और विचार पक्ष भिन्न-भिन्न हैं और विचार पक्ष की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो रहा है. जर्नल में प्रकाशित होने वाले विचारों में प्रकाशन से पहले न तो तथ्यों की जाँच की जाती है और न ही पारदर्शिता हे बरती जा रही है. यहाँ सबूतों की कोई इज्जत नहीं होती है. कई पाठक रिपोर्टिंग और ओपिनियन में अंतर नहीं कर पा रहे हैं और जो लोग इस अंतर को पहचानते हैं, वे जर्नल की विश्वनीयता और निरपेक्षता को लेकर रिपोर्टर से जवाब-तलब करते हैं, जिसका उत्तर रिपोर्टर के पास नहीं होता।
उन्होंने अपने पत्र में जर्नल में प्रकाशित कई विचारों की जानकारी दी जिसमें गलत तथ्य पाठकों के सामने परोसे गए थे. इनमें कंपनी के उपाध्यक्ष माइक पेन्स का लिखा हुआ आलेख हो https://www.wsj.com/articles/there-isnt-a-coronavirus-second-wave-11592327890 या फिर मैक डोनाल्ड का लिखा कॉलम https://www.wsj.com/articles/the-myth-of-systemic-police-racism-11591119883
इन आलेखों में तमाम गलत तथ्य रखे गए हैं. जाहिर-सी बात है कि ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ को लेकर किसी सरकार या किसी संगठन का यह आरोप होता तो एक बार विचार किया जा सकता था कि वह सही भी हो सकता है और गलत भी. यहाँ आरोप वहां कार्य कर रहे पत्रकारों और संपादकों के द्वारा लगाया हुआ है. भले ही लोग इस बात पर विश्वास न करें या मजाक में लें, लेकिन यह सत्य है कि दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ पर फेक न्यूज़ फैलने का आरोप लगा चुके हैं
यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि भारत सहित दुनिया के तमाम देशों के सत्ताधारी दल हमेशा से मीडिया को अपने पक्ष में खबर प्रकाशित करने के तमाम पैंतरे चलते रहते हैं, जिससे अपने पक्ष में जनता को किया जा सके. ऐसे में ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में प्रकाशित विचार में नया क्या है. इससे पहले भी ब्लूमबर्ग ने भी फेसबुक और राजनीतिक प्रोपोगंडा को लेकर खबर प्रकाशित की थी. ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वैश्विक मीडिया भारत और भारत सरकार को लेकर नकारात्मक ख़बरें प्रकाशित और प्रसारित करती रही हैं और भारतीय मीडिया का ‘अंडरवर्ल्ड’ उसे पाने पक्ष में भुनाते रहता है. जहाँ की सरकार मजबूत होती है, जनता का सपोर्ट होता है, वहां सोशल मीडिया का स्थान दोयम दर्जा का होता है. जहाँ की सरकार कमजोर होती है, वहां सोशल मीडिया सरकार के खिलाफ जनता को भड़काने का कार्य करती है और सफल भी होती है, जैसा ‘अरब स्प्रिंग’ मामले में हुआ. जो लोग सोशल मीडिया को बतौर ‘मनोरंजन’ का एक प्लेटफार्म मानते हैं, उन्हें यह हवाबाजी करने में अच्छा लगता है और हतप्रभ हैं कि फेसबुक ने किसी खास दल के पक्ष में कार्य कैसे किया. जो लोग फेसबुक के कंटेंट को लेकर अध्ययन कर रहे हैं, उन्हें बखूबी पता है कि सोशल मीडिया का यह प्लेटफ़ॉर्म किस तरह से ‘हेट-स्पीच’ को बरकरार रखता है और इस पर कोई अंकुश नहीं लगाता https://www.hbs.edu/faculty/Pages/item.aspx?num=52409
सिर्फ फेसबुक ही क्यों ट्विटर भी ‘हेट-स्पीच’ फैलाता है. यह कार्य आज से नहीं बल्कि एक दशक से अधिक समय से हो रहा है और संचार से जुड़े शोधार्थी इस पर लगातार शोध भी कर रहे हैं https://journals.sagepub.com/doi/abs/10.1177/0196859912458700
यह कार्य दूसरे देश के लोग नहीं बल्कि भारत के शोधार्थी भी कर रहे हैं.
‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ का अपना एक इतिहास रहा है और इसकी रिपोर्ट ने कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं लेकिन आज जिस तरह से इसका ‘ओपिनियन’ संदेह के घेरे में है. हालत तो यह है कि जिस तरह के दुनिया भर के अधिकतर पत्रकार फील्ड रिपोर्टिंग को छोड़ विचार पक्ष के आधार पर ख़बरें तैयार कर रहे हैं, यह पत्रकारिता के लिए चुनौती है. सोशल मीडिया सामाजिक मान्यताओं को ध्वस्त कर लोगों, परिवारों, समाजों की नई छवि का निर्माण कर रहा है, इस पर एक बार सोचना होगा. मीडिया के तमाम प्लेटफ़ॉर्म पर प्रकाशित होने वाले किसी भी आलेख की विश्वसनीयता को लेकर भी सोचना होगा. भारत और भारतीय मीडिया के ‘’अंडरवर्ल्ड’ की स्थिति अलग है और वह किसी भी झूठे समाचार में घंटों ही नहीं कई दिनों तक बहस कर सकता है या फिर कई सही घटना को अनदेखी भी कर सकता है. जो जर्नल खुद अपने कर्मचारियों के द्वारा संदेह के घेरे में हो, ऐसे में उस जर्नल में प्रकाशित किसी ‘ओपिनियन’ को लेकर जिस तरह से भारतीय मीडिया का ‘अंडरवर्ल्ड’ गंभीरता से लेता दिखाई दी रहा है, वह चिंता का विषय है. भारतीय लोकतंत्र में मीडिया को इतनी स्वतंत्रता मिलने के बाद भी भारतीय मीडिया का ‘अंडरवर्ल्ड’ वैसी खबर नहीं निकाल पा रहा है, जो सरकार को अच्छी तरह से कठघरे में खड़ा कर सके. अपनी असफलता को छुपाने के लिए वह किस तरह पश्चिमी मीडिया में लिखे ओपिनियन को बहस का एक आधार बना रहा है. भारतीय मीडिया की नाकामी हर मोर्चे पर लगातार दिख रही है और किस तरह पश्चिमी देशों या पश्चिमी मीडिया के इशारे पर यहाँ का ‘अंडरवर्ल्ड’ कार्य कर रहा है, यह भी चिंता का विषय है.
बहरहाल, सरकार से अधिक विश्वसनीयता का संकट मीडिया पर मंडरा रहा है. प्रिंट मीडिया से लेकर टीवी मीडिया तक या फिर सोशल मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर हर दिन प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं. फेक न्यूज़ के दौर में जिस तरह से ग्राउंड रिपोर्टिंग में कमी आई है, खबर संकलन के मामले में रिपोर्टर की निर्भरता सोशल मीडिया पर बड़ी है, समाचार से अधिक विचार पक्ष को प्रमुखता दी जा रही है, ऐसे में यह विचार करना आवश्यक है कि यदि ऐसी स्थिति रही तो सूचना की दुनिया कहाँ होगी और इसकी विश्वसनीयता कहाँ होगी और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की आगामी रुपरेखा कहाँ होगी, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.
विनीत उत्पल वरिष्ठ पत्रकार हैं। इन दिनों अध्यापन से जुड़े हैं और सोशल मीडिया पर गंभीरता से अध्ययन कर रहे हैं। vinitutpal.com