विनोद खन्ना-एक अभिनेता,एक सन्यासी और एक राजनेता

बॉलिवुड के सबसे हैंडसम और रोबदार हीरो विनोद खन्ना पंचतत्व में विलीन हो गए। पिछले काफी समय से वह बीमार चल रहे थे। 6 अक्टूबर 1946 में जन्मे विनोद खन्ना ने साल 1968 से लेकर साल 2013 के बीच ने करीब 141 फिल्मों में काम किया।
खन्ना का जन्म पंजाबी फैमिली में हुआ। उनके माता-पिता का नाम कमला और किशनचंद खन्ना था। उनकी तीन बहनें और एक भाई था। उनका परिवार 1947 में हुए विभाजन के बाद पेशावर से मुंबई आ गया था।
अपनी पढ़ाई सेंट मैरी स्कूल से शुरू की और क्लास 2 में वह सेंट ज़ेवियर स्कूल आ गए। इसके बाद 1957 में परिवार दिल्ली आ गया, जिसके बाद उन्होंने दिल्ली पब्लिक स्कूल, मथुरा रोड से पढ़ाई की। फिर परिवार 1960 में वापस मुंबई चला गया। बोर्डिंग स्कूल से पढ़ाई के दौरान उन्होंने ‘सोलवा साल’ और ‘मुगल-ए-आजम’ देखी, जिसके बाद उन्हें फिल्मों से प्यार हो गया। मुंबई के कॉलेज से कॉमर्स से उन्होंने ग्रैजुएशन की पढ़ाई की।

बॉलीवुड में आना आसान नहीं था विनोद खन्ना के लिए….
विनोद खन्ना के लिए फिल्मों में काम करना आसान भी नहीं था। उनके पिता एक बिज़नसमैन थे और वह चाहते थे कि उनका बेटा भी बिज़नस करे।
जब विनोद को फिल्म का ऑफर मिला और उन्होंने घर पर पिता को बताया तब उनके पिता ने उन्हें बहुत डांटा और उन पर बंदूक तानकर कहा कि अगर वह फिल्मों में गए तो उन्हें गोली मार मार देंगे। विनोद खन्ना की मां ने बाद में उनके पिता को खूब समझाया तब जाकर पिता ने उन्हें दो साल तक फिल्म इंडस्ट्री में काम करने की मंज़ूरी दी और दो साल का दिया अल्टीमेटम ।


विनोद खन्ना ने विलन के तौर पर शुरू किया अपना करियर….

सुनील दत्त ने अपने भाई सोमदत्त को हीरो बनाने के लिए फिल्म, ‘मन का मीत’ का निर्माण किया था. इसी फिल्म से विनोद खन्ना ने खलनायक के रोल में अपनी फिल्मी पारी की शुरूआत की थी. इसके बाद ‘मेरे अपने’, ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘गद्दार’, ‘जेल यात्रा’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘कुर्बानी’ जैसी कई फिल्मों में अपने बेहतरीन अभिनय के लिए जाने जाते हैं विनोद। हालांकि खन्ना ने ऐक्टिंग की दुनिया में अपनी शुरुआत विलन वाले किरदार से की थी। उनका एंग्री यंग मैन वाला रोल गुलज़ार की फिल्म ‘मेरे अपने’ में नज़र आया था और मुख्य विलन वाले रोल की बात करें तो ‘मेरा गांव मेरा देश’ में उनके विलन वाले किरदार को क्रिटिक्स ने खूब सराहा।


जब अमिताभ का सिहांसन विनोद की वजह से डगमगाने लगा…
1973 में गुलजार की फिल्म ‘अचानक’ में विनोद खन्ना ने ऐसे नायक की भूमिका निभाई, जो शादी के बाद किसी और से प्यार करने वाली अपनी पत्नी की हत्या कर देता है, लेकिन दर्शकों की सहानुभूति अपने हीरो से कम नहीं होती. धीरे-धीरे दर्शकों के प्यार के साथ वो हीरो परदे पर ऐसे परवान चढ़ता है, कि बॉक्स ऑफिस पर फिल्में उसके दम पर चलने लगती हैं.


1974 में आई ‘इम्तिहान’ नाम की फिल्म इसकी मिसाल है. उस दौर में बढ़ती विनोद खन्ना की लोकप्रियता की एक मिसाल ‘हाथ की सफाई’ नाम की फिल्म भी है.

1974 में आई ये फिल्म अमिताभ बच्चन को जंजीर नाम की फिल्म से सुपरस्टार बनाने वाले डाइरेक्टर प्रकाश मेहरा ने बनाई थी. ये फिल्म भी जंजीर की तरह सुपरहिट रही. उस कामयाबी ने विनोद खन्ना की छवि बतौर हीरो और पुख्ता बनाई. ये छवि इतनी मजबूत थी कि सिनेमा के जिस दौर में बॉक्स ऑफिस पर सिक्का सबसे ज्यादा अमिताभ बच्चन का चलता था, उस दौर में विनोद खन्ना एंग्री यंगमैन के सबसे बड़े मुकाबलेदार माने गए.

‘खून पसीना’ में अमिताभ के सामने विनोद खन्ना की मौजूदगी बराबर की रही. उस बराबर की टक्कर के बाद अमिताभ के एक और मुरीद डाइरेक्टर मनमोहन देसाई की नजर विनोद खन्ना पर गई. इसके बाद तो अमिताभ की हर फिल्म में जैसे विनोद खन्ना का रोल पक्का होता गया.

मनमोहन देसाई ने उन्हें ‘अमर अकबर एंथनी’ के बाद ‘परवरिश’ जैसी फिल्म में अमिताभ के साथ दोहराया. तो प्रकाश मेहरा ने एक बार फिर उन्हें ‘मुकद्दर का सिकंदर’ में आजमाया. इन चारों फिल्मों में सहायक हीरो की भूमिका करते हुए भी विनोद खन्ना अमिताभ के बराबरी करते नजर आए.

अमिताभ को बराबर की टक्कर के साथ उस दौर में विनोद खन्ना की अपनी अलग सितारा हैसियत भी थी. इस हैसियत के साथ विनोद खन्ना की दो-तीन फिल्म हर साल सुपरहिट होती थी. हालांकि इस दौर में सोलो हीरो फिल्में विनोद खन्ना को कम ही मिली. लेकिन अपने चाहने वालों की नजर में इकलौते हीरो थे, जो अमिताभ के सुपरस्टारडम को भी पीछे छोड़ सकते थे.

तब किसे अंदाजा था सुपरस्टारडम की उस बुलंदी पर उस हीरो का मन अपने ही जेहन की उलझनों में गुम होता जा रहा है. सिनेमा को लेकर उसकी सोच कामयाबी शोहरत और सुपरस्टाडम की कामना से कहीं आगे निकल चुकी थी. 1978-79 के उन बरसों में विनोद खन्ना का मन अध्यात्म की तरफ झुकने लगा था. उन्होंने कहा था-मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे मैं कोई मशीन हो गया हूं. गुस्सा, प्यार और हंसी ठिठोली जैसी भावनाओं पर भी मेरा कोई नियंत्रण रह गया था. ऐसा लगता था जैसे कोई बटन दबाता है और मैं एक्शन में आ जाता हूं.

सिनेमाई एक्शन और मुख्यधारा की चकाचौंध से अलग ‘मीरा’ और ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ जैसी फिल्में उन्हें ज्यादा सुकून देने लगी थीं. यूं कहें कि विनोद खन्ना का मन सिनेमा की दुनिया से उबने लगा था. ये बात किसी को भी हैरान करने वाली थी, जिस मोड़ से उस हीरो को सुपरस्टारडम के मुकाम तक पहुंचना था, उस मुकाम पर ख्याल कुछ ऐसे आने लगे थे.

जब विनोद ने धोये गंदे बर्तन और बने माली भी….
बॉलीवुड का स्टारडम छोड़कर संन्यास की राह पकड़ने वाले अभिनेता विनोद खन्ना 1982 में अमेरिका के ओरेगन राज्य में बने ओशो के आश्रम रजनीशपुरम चले गए और पांच साल तक वहां रहे. इस दौरान उन्होंने ध्यान अध्यात्म के साथ माली का काम संभाला. आश्रम में उनका नामकरण विनोद भारती के रूप में हुआ था. लेकिन जिस मन की शांति के लिए वो अध्यात्म की शरण में गए, वो उन्हें हासिल नहीं हुई. इधर मुंबई में इसके चलते उनका परिवार बिखर गया.

जब टूट गया विनोद का परिवार….
विनोद खन्ना ने खुद कहा था कि संन्यास का वो फैसला बिल्कुल मेरे अपने लिए था. इसलिए वो फैसला मेरे परिवार को बुरा लगा. मुझे भी दोनों बच्चों के परवरिश की चिंता होती, लेकिन मैं मन से मजबूर था.

संन्यास का फैसला विनोद खन्ना की मजबूरी थी या मन की कोई उलझन, संन्यास के साथ विनोद खन्ना का करियर तो वहीं का वहीं ठप हो गया, परिवार भी ऐसे बिखरा कि फिर कभी जुड़ नहीं पाया. अमेरिका के ओशो आश्रम में रहते हुए ही पत्नी गीतांजलि से अलगाव हुआ. 1985 में तलाक के साथ ये बात तो खत्म हो गई, लेकिन विनोद खन्ना का मन संन्यास में भी नहीं रमा. वो अक्सर भारत वापस लौटने की बात करते रहते थे.

जब कविता आयीं विनोद खन्ना की ज़िन्दगी में….
मुंबई लौटकर आने के बाद एक तरफ सिनेमा की दुनिया में खुद को दोबारा साबित करने का संघर्ष और दूसरी तरफ बिखरे हुए परिवार का दर्द. विनोद इस दौर को भी बदल देना चाहते थे. वो साथ उन्हें कविता दफ्तरी में मिला, जिनसे मिलना बड़े ही संयोग से हुआ था.

कविता अमेरिका और यूरोप से पढ़ाई पूरी करने के बाद इंडस्ट्रियलिस्ट पिता सरयू दफ्तरी का बिजनेस संभाल रही थी. विनोद खन्ना से पहली मुलाकात एक पार्टी में हुई, जिसमें कविता बिना किसी बुलावे के दोस्तों के साथ आई थी. कविता की तरफ से वो मुलाकात तो औपचारिक थी, लेकिन विनोद खन्ना उस पहली मुलाकात में ही कविता के मुरीद हो गए. एक साल की मेल मुलाकात के बाद विनोद खन्ना ने एक और चौंकाने वाला ऐलान किया- वो अपने से 16 साल छोटी कविता से शादी करने जा रहे हैं.

कविता के साथ विनोद खन्ना की जिंदगी नए सिरे से बस रही थी. फिल्में भी इस दौर में उन्हें उम्र के मुताबिक मिल रही थी. जेपी दत्ता की बंटवारा और क्षत्रिय जैसी फिल्म विनोद खन्ना के उस दौर की गवाह हैं. हालांकि 90 के दशक में क्रेज आमिर, सलमान और शाहरुख जैसे नई उम्र के सितारों का बन चुका था. लिहाजा विनोद खन्ना के पास विकल्प गिने चुने ही थें.

विनोद जब राजनीती में आये तो यहाँ भी छा गए…..
इसी दौरान उन्होंने ‘हिमालयपुत्र’ नाम की फिल्म का निर्माण किया. अपने बड़े बेटे अक्षय खन्ना को लॉन्च करने के लिए. वर्ष 1997 में विनोद खन्ना ने पिता के तौर पर भी अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली, लेकिन निजी तौर पर सिनेमा से अलग रुख दोबारा किया. वो रास्ता था सियासत का. विनोद खन्ना राजनीति में चले गए.

वर्ष 1997, 1999,2004 और 2014 में विनोद खन्ना चार बार पंजाब के गुरदासपुर क्षेत्र से बीजेपी की ओर से सांसद चुने गए। 2002 में वह संस्कृति और पर्यटन के केन्द्रीय मंत्री भी रहे। सिर्फ 6 महीने के बाद ही उन्हें अत्यंत महत्वपूर्ण विदेश मामलों के मंत्रालय में राज्य मंत्री बना दिया गया था।

एक अनोखा संयोग देखिए कि उनकी ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘कुर्बानी’ में उनके को-स्टार और मित्र फिरोज खान भी साल 2009 में आज ही के दिन चल बसे थे।

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