दस लाख बोलिवार का नया करेंसी नोट जारी करने वाला वेनेज़ुएला दुनिया का पहला देश बन गया है। वेनेजुएला के केंद्रीय बैंक ने देश में भयंकर मंहगाई से निपटने के लिए नए नोट जारी करने का फैसला किया। मौजूदा विनियम दर पर दस लाख बोलिवार का यह करेंसी नोट करीब 39 भारतीय रूपयों के बराबर होगा। 10 लाख के बोलिवार नोट से भारत में एक पिज्जा तो क्या आधा किलो चावल भी मुश्किल से खरीद पाएंगे। बात यहीं खत्म नही होती वेनेजुएला का केंद्रीय बैंक दो लाख और पाँच लाख बोलिवार के करेंसी नोट भी जारी करेगा। फ़िलहाल वहां दस हज़ार, बीस हज़ार और पचास हज़ार बोलिवार के करेंसी नोट चलन में हैं। जिनसे एक कप चाय भी नहीं खरीदी जा सकती।
आमजन बोरी भरकर नोट बाजार ले जाते हैं और वहां से मुठ्ठी भर समान लाते हैं। समस्या सिर्फ मंहगाई की नही है भुखमरी भी मुंह बाए खड़ी है। फूड-ग्रोसरी स्टोर्स खाली पड़े हैं। घंटों लाइन में लग कर भी खाने को कुछ हासिल नही हो रहा। ब्रेड के एक टुकड़े के लिए मार काट मची है। वेनेजुएला में मुद्रास्फीति 2600 प्रतिशत के खतरनाक स्तर पर जा पहुंच है। कालाबाजारी खुलेआम है, स्टोर्स लूटे जा रहे हैं, राजनीति चरम पर है। आश्चर्यजनक रूप से देश में दो राष्ट्रपति हैं। दोनों के अपने अपने दावे और वादे हैं।
दुनिया में सबसे अधिक कच्चे तेल के भंडार का मालिक वेनेजुएला वेनेजुएला आज उस मुकाम पर खड़ा है जहां देश को दो जून की रोटी भी नसीब नही है। कहां वेनेजुएला ऐसे मुल्क के तौर पर जाना जाता था जहां कोई भूखा नही सोता था और अब वहां इतनी भुखमरी है कि लोग कचरे से चुनकर खाने को मजबूर हैं। वेनेजुएला की कंगाली और बर्बादी की दास्तान शुरू होती है पूर्व राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज की मुफ्तखोरी की राजनीति से। भ्रष्टाचार के खात्में के वादे और गरीबों के समर्थन से 1998 में करिशमाई शावेज राष्ट्रपति बने।
सत्ता संभालते ही शावेज ने वेनेजुएला के पॉलिटिकल सिस्टम और सविंधान में मनमाफिक बदलाव किए। एक नई नैशनल असेंबली बनाई गई जिसके मुखिया वो खुद थे। शावेज सत्ता में बने रहें इसके लिए दोबारा चुनाव लड़ने से जुड़ी शर्त खत्म कर दी गई। उनके कारनामों पर कोई सवाल न उठाए इसलिए उन्होंने मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लिया। तेल बेच कर जो पैसा आता था वो फूड सब्सिडी, शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च कर दिया जाता था। लागत से कम कीमत पर चीजें उपलब्ध थी। गरीबी कम हो रही थी, जनता खुश थी और सरकार मस्त। शावेज ने खूब वाह वाही लूटी पर उसकी खराब आर्थिक नीतियों की कीमत वेनेजुएला को चुकानी पड़ी।
शावेज अपने मॉडल को 21वीं सदी का समाजवाद कहते थे। इस समाजवादी अर्थव्यवस्था का क्रूरतम रूप दुनिया ने देखा। कारखानों और उद्योगों का सरकारीकरण कर दिया गया। निजी सेक्टर के खिलाफ जंग छेड़ दी गई। और यह जंग तब तक जारी रही जब तक निजी उद्योग बर्बाद नही हो गए। सब्सिडी बढ़ती गई और सरकारी खर्च आसमान छूने लगे। तेल की बिक्री से आने वाला पैसा अगर कम पड़ता तो कर्ज ले लिया जाता। वेनेजुएला को पता ही नहीं चला और वो कर्ज के ढेर के नीचे दबता चल गया।
शावेज के अंतिम वर्षों में वेनेजुएला का फिस्कल डेफिसिट यानी राजकोषिय घाटा करीब 20 प्रतिशत जा पहुंचा था। मतलब सरकार अपनी आय से 20 प्रतिशत अधिक खर्च कर रही थी। बताने की जरूरत नही कि घाटे पूरा करने के हर तरीके को अपनाया गया कर्ज लिया गया, नए नोट छापे गए परिणामस्वरूप मुद्रा का अवमूल्यव हुआ और मंहगाई कमरतोड़ स्तर तक बढ़ गई। देश केवल निर्यात के पैसे से नही चलता देश के भीतर भी उद्योग धंधों को बढ़ावा देना होता है। सारे काम सरकार के जिम्मे नही छोड़े जा सकते।
जब तक तेल की कीमतें आसमान छू रही थी तब तक सब अच्छा चलता रहा। फिर अचानक वेनेजुएला को दो बड़े झटके लगे पहला राष्ट्रपति शावेज का 2013 में निधन हो गया। दूसरा 2014 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें धड़ाम से गिर गई। तेल पर टिकी अर्थव्यवस्था इन झटकों को सह न सकी और वेनेजुएला के घावों से मवाद फूट निकला। वेनेजुएला को आखिरी झटका शावेज के उत्तराधिकारी मादुरों की बढ़ती तानाशाही ने दिया। देश में राजनीतिक घमासान छिड़ गया। चुनाव धांधली के आरोपों पर अमेरिका समेत कई देशों ने वेनेजुएला पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। तेल संकट से जूझ रहे देश के लिए इसे झेलना मुश्किल था और फिर वो दौर आया जिसकी चर्चा ऊपर की गई है।
वेनेजुएला से पहला सबक मिलता हैं, आर्थिक अनुशासन का। भारत में मुफ्तखोरी की राजनीति से तौबा करने का वक्त अब आ गया है। दक्षिण भारत से शुरू हुई मुफ्तखोरी की राजनीति अब दिल्ली तक जड़ें जमा चुकी है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार मुफ्त पानी और बिजली के दावों के साथ सत्ता में आई। ठीक वैसे ही जैसे वेनेजुएला में शावेज की सरकार । बुजुर्गों को मुफ्त राम मंदिर दर्शन करने का नया शिगुफा भी केजरीवाल सरकार छोड़ चुकी है। तर्क यह नही है कि जरूरतमंदों को सस्ता भोजन या जरूरत की चीजें सरकार सब्सिडी पर उपलब्ध कराए या न कराए। हर सरकार को जरूरतमंदों का ख्याल रखना ही चाहिए। तकलीफ तब होती है जब सरकारें सत्ता के लालच में उन लोगों को फ्री में चीजें बांटना शुरू कर देती है जो पैसा खर्च करने की काबलियत रखते हैं। देश दूसरा वेनेजुएला न बन जाए इसलिए राज्य व केंद्र सरकारों को मुफ्तखोरी की राजनीतिक रेस में पड़ने की बजाए सख्त आर्थिक अनुशासन अपनाना होगा।
दूसरा सबक है राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं की स्वतंत्रता। सारी ताकत जब एक व्यक्ति के हाथों मे निहित हो जाती है तो देश का डूबना तय है। स्वतंत्र संस्थाएं लोकतंत्र के लिए अमृत का काम करती हैं। जब देश की संस्थाएं सत्ता के इशारे पर नाचने लगती है तो वेनेजुएला जैसे हालात बनने में वक्त नही लगात। भारत आपातकाल में यह झेल चुका है। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कानून बना कर सविंधान को निरस्त कर दिया था। सभी विपक्षी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और सत्ता विरोधी पत्रकारों को जेल में ठूंस दिया था। प्रेस और लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। और इन सबके पीछे वजह बस एक ही थी और वह थी सत्ता लोलुपता। दोबारा ऐसी स्थिती पैदा न हो इसके लिए देश को राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं की स्वतंत्रता को हर हाल में कायम रखना होगा।