बिहार में विधानसभा चुनाव 2020 की बिसात पर इस बार एक बहुत शक्तिशाली मोहरा दिखाई नहीं देगा। लेकिन ख़ुद सशरीर मौजूद नहीं रहकर भी वो हार-जीत का रुख़ तय करने वाला निर्णायक मोहरा साबित हो सकता है। उस मोहरे का नाम है रघुवंश प्रसाद सिंह। लालू यादव का साथ छोड़ने के लिए लिखी गई चंद शब्दों की चिट्ठी में रघुवंश बाबू ने 32 वर्षों तक संचित रही अंतर्मन की वेदना का जो दर्द उड़ेला, बिहार के संवेदनशील लोगों ने उसे हू-ब-हू मसहूस किया है। क़रीब-क़रीब अंत तक रघुवंश प्रसाद सिंह लालू यादव के साथ भरोसे की डोर से बंधे रहे। जब उन्होंने ये डोर तोड़ने का फ़ैसला किया, तो किसे पता था कि उनके जीवन की ही डोर कटने वाली है।
रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता का होना किसी एक पार्टी के लिए ही ज़रूरी नहीं होता, बल्कि सियासत की कुल शुचिता के लिए ज़रूरी होता है। वे ऐसे नेता थे, जिन्होंने राजनीति की निष्ठुर आंखों के पानी का पूरा मान रखा और सक्रिय रहते हुए राजनीति के सही लक्ष्यों की पूर्ति के लिए ही पसीना बहाया। मार्च 1990 से लेकर जुलाई 1997 तक लालू यादव बिहार के सीएम रहे। चारा घोटाले में गले तक डूब जाने के बाद जब उन पर जनता दल अध्यक्ष और सीएम पद छोड़ने का दबाव पड़ा, तो 5 जुलाई, 1997 को उन्होंने दिल्ली में बैठक कर आनन-फ़ानन में राष्ट्रीय जनता दल बना लिया। जनता दल छोड़कर रघुवंश प्रसाद सिंह भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए। हालांकि लालू को लिखे अपने अंतिम पत्र में ख़ुद रघुवंश प्रसाद सिंह ने अति विनम्र होते हुए उन्हें ऐसा एहसास नहीं कराया। उन्होंने यही लिखा कि वे उनकी पीठ पीछे खड़े रहे। चारा घोटाले में सीएम पद छोड़ कर लालू यादव को जेल जाना पड़ा, तो 25 जुलाई, 1997 को उनकी पत्नी राबड़ी देवी को सीएम बना दिया गया।
पत्नी राबड़ी देवी को सीएम बनाने के लालू यादव के फ़ैसले ने उसी समय साफ़ कर दिया कि समाजवादी चोला उन्होंने केवल दिखावे के लिए ही पहना था, असल में उनकी सोच वंशवाद के विस्तार की ही थी। क़रीब एक महीने तक राष्ट्रपति शासन लगने से पहले राबड़ी देवी फ़रवरी, 1999 तक सीएम रहीं। 9 मार्च, 1999 को राबड़ी ने सीएम की कुर्सी फिर से संभाली। वर्ष 2000 में आरजेडी को 124 सीटें मिलीं और राबड़ी देवी की ताजपोशी सीएम पद पर फिर की गई। कहने का तात्पर्य ये है कि लालू यादव नेपथ्य में थे, उनके बच्चे तेजस्वी और तेजप्रताप छोटे थे, ऐसे में रघुवंश प्रसाद सिंह के लिए कई बार सीएम पद हासिल करने का अवसर बन सकता था, लेकिन उन्होंने कभी ऐसा कोई संकेत तक नहीं दिया। वे चुपचाप पूरी निष्ठा से लालू यादव और उनके परिवार की पीठ के पीछे खड़े रहे। लेकिन मृत्यु से चंद दिन पहले आख़िरकार उन्होंने पूरी संजीदगी से लालू यादव के कह दिया कि अब और नहीं।
यूपीए-वन में केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री के तौर पर मनरेगा जैसी योजना के शिल्पी रघुवंश प्रसाद सिंह ही हो सकते थे। ठीकठाक पढ़े-लिखे होने के बावजूद अंदर से गंवईपन में जीने की वजह से मिट्टी की सौंधी सकारात्मक सियासत उनसे बेहतर कौन समझ सकता था? कोई शक नहीं कि गठबंधन धर्म का रोना रोने वाली मनमोहन सरकार को 2009 में दूसरा मौक़ा मिला, तो उसमें मनरेगा योजना ने ही गेम चेंजर की भूमिका अदा की थी। हालांकि किसी के निधन के बाद उसकी आलोचना करना भारतीय सभ्यता के अनुरूप नहीं होता, लेकिन यहां क्योंकि सार्वजनिक जीवन में रहे रघुवंश प्रसाद सिंह की बात हो रही है, तो एक प्रश्न तो सहज ही मन में उठता है। अगर रघुवंश लालू यादव की पीठ पीछे खड़े रहे, तो उन्हें भ्रष्टाचार करने से रोक क्यों नहीं पाए? ख़ुद कभी रघुवंश पर भ्रष्टाचार को लेकर उंगलियां नहीं उठीं, तो फिर उन्होंने लालू परिवार के भ्रष्टाचार पर खुल कर नाराज़गी क्यों ज़ाहिर नहीं की? ये एक कमज़ोर पहलू है, जिसका ज़िक्र आज की तारीख़ में हालांकि बेमानी है।
लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप ने आरजेडी को समंदर और रघुवंश बाबू को एक लोटा पानी करार दिया, तभी साफ़ हो गया था कि उनके सब्र का बांध टूट कर रहेगा। बांध टूटा भी, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। हालांकि उससे पहले बिहार की सियासत की समझ रखने वाले मान रहे थे कि 2020 के विधानसभा चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह वंशवादी विरासत के सामने छाती तान कर उसी तरह खड़े होंगे, जैसे पूरे 32 वर्ष लालू यादव की पीठ के पीछे अविचल खड़े रहे। जीवित होते, तो सामने खड़े होते, लेकिन अब स्वर्गवासी रघुवंश बाबू लालू यादव की वंशवादी विरासत के चारों तरफ़ अदृश्य रूप से विद्यमान रहेंगे। इस बात का एहसास आरजेडी परिवार के साथ-साथ उनके सहयोगियों को भी शिद्दत से होने लगा है और वे ऐसे-ऐसे बयान दे रहे हैं, जिन पर सिर्फ़ हंसी आ सकती है। उनका कहना है कि रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपनी मृत्युशैया से कोई इस्तीफ़ा लिखा ही नहीं, बल्कि उनसे जबरन लिखवाया गया था। एक शंका ये भी जताई जा रही है कि वेंटीलेटर पर कोई व्यक्ति चिट्ठी कैसे लिख सकता है? ज़ाहिर है कि निशाने पर भारतीय जनता पार्टी ही है, क्योंकि राजधानी दिल्ली के एम्स इलाज करा रहे रघुवंश बाबू से ज़ोर-ज़बर्दस्ती वही कर सकती थी, जेडीयू की दादागीरी तो दिल्ली में चलती नहीं।
सौ टके का सवाल यह है कि क़रीब चार दशक तक साथ काम करने के बाद लालू यादव भी क्या रघुवंश बाबू की हैंडराइटिंग नहीं पहचानते हैं? क्यों लालू ने रघुवंश प्रसाद सिंह को जवाबी चिट्ठी तुरंत उसी सादगी से लिख दी, जिसमें कहा गया कि रघुवंश जी आप हमें छोड़कर कहीं नहीं जा रहे हैं। लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह लालू को ही नहीं, हम सभी को छोड़कर आख़िर चले ही गए। उनका जाना यक़ीनन आरजेडी का बड़ा सियासी नुकसान है। अब गर्म चर्चा ये है कि पार्टी छोड़ने के बाद अगर वे जीवित रहते, तो आरजेडी को उतना नुकसान नहीं होता, जितना उनकी मृत्यु के बाद होगा। यही वजह है कि आरजेडी मृत्यु से कुछ पहले दिए उनके इस्तीफ़े को संदिग्ध साबित करने में लगा है। जो भी हो, आरजेडी को नुकसान हो या फिर जेडीयू और बीजेपी का फ़ायदा, रघुवंश प्रसाद सिंह के निधन से देश की सियासत का बड़ा नुकसान ज़रूर हुआ है। विधानसभा चुनाव के नतीजे ही साबित कर पाएंगे कि आरजेडी के वंशवाद को झटका लगता है या फिर वंशवृक्ष और ज़्यादा लहलहाने लगता है। वैसे भी इस मामले में आरजेडी अकेली पार्टी नहीं है। रामविलास पासवान की भी दूसरी पीढ़ी मैदान में ताल ठोक रही है।