एससी/एसटी एक्ट पर केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह इस कानून के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन किसी किसी निर्दोष को सजा भी न मिले।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘जो लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे है, उन्होंने हमारा फैसला तक नहीं पढ़ा है, हमारी चिंता उन बेकसूर लोगों को लेकर है, जो बिना ग़लती के जेल में है, हम ऐक्ट के खिलाफ नही है, चिंता एक्ट के दुरुपयोग को लेकर है।’
कोर्ट ने कहा,’इस एक्ट में एक भी प्रावधान ऐसा नहीं है, जिसे इस फैसले के जरिये हल्का किया गया हो। कोर्ट के फैसले का एकमात्र मकसद निर्दोष लोगों को बचाना है। आर्टिकल 21 के तहत देश के आम नागरिक को संविधान में संरक्षण मिला है, फैसला उसी के सन्दर्भ में लिया गया गया है।’
बेंच ने सुनवाई करते हुए कहा कि अगर आरोपी के खिलाफ कार्रवाई से पहले शिकायत की पड़ताल कर ली जाए तो इसमें क्या दिक्कत है। हम कानून के खिलाफ नहीं लेकिन निर्दोषों को सजा न मिले।
20 मार्च को फैसला देने वाली जस्टिस आदर्श गोयल गोयल और जस्टिस यू यू ललित की बेंच पुर्नविचार याचिका पर सुनवाई कर रही है।
आमतौर पर पुनर्विचार याचिका पर जज चैम्बर के अंदर सुनवाई करते है, पक्षकारो को जिरह का मौका नहीं मिलता पर कोर्ट ने सरकार की खुली अदालत में सुनवाई की मांग मान ली।
अटॉर्नी जनरल ने क्या कहा?
आज अटॉर्नी जनरल ने जस्टिस गोयल और जस्टिस रोहिंटन नरीमन की बेंच के सामने पुर्नविचार याचिका पर जल्द सुनवाई की मांग की। अटॉर्नी जनरल ने कानून व्यवस्था का हवाला देकर फैसले पर रोक की मांग की।
अटॉर्नी जनरल ने कहा,’विरोध प्रदर्शन में लोग मर रहे है, 1000 करोड़ से ज़्यादा की सम्पति बर्बाद हो चुकी है, हालांकि एमिकस क्यूरी अमरिंदर शरण ने सरकार की इस दलील का विरोध किया।’
अटॉर्नी जनरल की इस दलील का विरोध करते हुए एमीकस क्यूरी अमरिंदर शरण ने कहा कि कानून व्यवस्था कायम रखना सरकार की ज़िम्मेदारी है और इसका हवाला देकर फैसले पर रोक नहीं लगाई जा सकती।
आपको बता दें कि चूंकि पुनर्विचार याचिका वही बेंच सुनती है जिसने फैसला दिया था। फैसला जस्टिस गोयल और ललित का था। दोनों आज अलग बेंच में बैठे हैं। इसलिए जस्टिस गोयल ने एटॉर्नी जनरल से कहा कि वो चीफ जस्टिस से उसी बेंच के गठन का निवेदन करें।
इसके बाद अटॉर्नी जनरल ने भी चीफ जस्टिस से आग्रह किया जिस पर चीफ जस्टिस ने नई बेंच का गठन किया।
पुर्नविचार याचिका में सरकार ने क्या कहा है?
* सुप्रीम कोर्ट का हालिया आदेश SC/ST एक्ट को लेकर संसद की सोच के खिलाफ है, 2016 में संसद की सिफारिश पर ही इस कानून और ज़्यादा सख्त बनाया गया था
*NCRB के आंकडों के मुताबिक SC/ST समुदाय के खिलाफ उत्पीड़न के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। 2016 में 47,338 केस दर्ज हुए इनमें से केवल 24.9% मामलों में ही सज़ा हो पाई। 89.3% मामले 2016 के आखिर तक लंबित थे। ऐसे में SC/ST समुदाय को ये भरोसा दिलाना ज़रूरी है कि शुरुआती जांच की आड़ में आरोपी गिरफ्तारी से नहीं बच पायेगा।
*सजा की दर में कमी की असली वजह FIR दर्ज करने में होने वाली देरी, गवाहों और शिकायतकर्ता का मुकर जाना और अभियोजन पक्ष की लापरवाही का नतीजा है।
*जहाँ एक ओर आर्टिकल 21 के तहत आरोपी के अधिकारों की रक्षा ज़रूरी है वहीँ संरक्षण का ये अधिकार SC/ST समुदाय को भी हासिल है। ऐसे में उत्पीड़न निरोधक कानून के प्रावधानों को हल्का करना संविधान में SC/ST समुदाय को मिले संरक्षण की गारंटी से वंचित कर देगा।
*इस समुदाय के हालातों को सुधारने के लिए पर्याप्त उपाय करने के बावजूद ये समुदाय नागरिक अधिकारों से वंचित रहा है। ऐतिहासिक, सामाजिक, और आर्थिक वजहों से वो कई तरह के क्रूर अपराधों का शिकार होते रहे हैं।
*SC/ST Act के संभावित दुरूपयोग की आशंका इस एक्ट के प्रावधानों को नरम बनाये जाने का आधार नहीं हो सकता।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को दिेए फैसले में कानून के दुरुपयोग को देखते हुए पब्लिक सर्वेंट की गिरफ्तारी पर तब तक के लिए रोक लगा दी थी जब तक कि नियुक्ति करने वाली अथॉरिटी इस मामले में मंज़ूरी नहीं दे देती।
साथ ही कोर्ट ने कहा था कि आगे की गिरफ्तारी की अनुमति के लिये कारणों की समीक्षा मैजिस्ट्रेट की निगरानी में होगी।