नई दिल्ली, 15 अगस्त।
द्वि-राष्ट्रवाद का सिद्धांत कुरान नहीं सिखाता, लेकिन इस्लामी कानून यह सिखाता है। क्योंकि इस्लामी कानून में दारुल इस्लाम और दारुल हरब की बात है। जबकि कुरान में कहीं भी यह बात नहीं है। पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने ये विचार यहाँ एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के तत्वावधान में धर्मनिरपेक्षता एवं द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत विषय पर दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान परिसर में आयोजित एक व्याख्यान में व्यक्त किए।
श्री खान ने कहा कि ऐसा कानून किस तरह कुरान के खिलाफ है, इस बात को आप अभी हाल में तीन तलाक प्रकरण को लेकर छिड़ी बहस से समझ सकते हैं। अभी जब अदालत में इस विषय को लेकर एफिडेविट दाखिल करने की बात आई तो उसमें उन लोगों ने भी, जो तीन तलाक के समर्थक हैं, इस मुद्दे पर यह कहा कि यह कुरान के विरुद्ध है। क्योंकि यह एक कुप्रथा है। कुप्रथा है, यानी कुरान के मुताबिक हराम है, गुनाह है। यह बात सभी मानते हैं और फिर भी कहते हैं कि जायज है। यह जायज कैसे हो सकती है?
उन्होंने कहा कि आज के जितने मानव अधिकार हैं, जिनकी बात हम पश्चिमी देशों के नजरिये से करते हैं, वे सभी कुरान की एक ही अवधारणा में सन्निहित हैं। वह अवधारणा है मानव की प्रतिष्ठा की। कुरान कहता है कि हमने आदम की संतानों को प्रतिष्ठा से नवाजा। आदम की संतानों यानी मानवमात्र को। उसने किसी पंथ को मानने या न मानने के आधार पर किसी को अलग नहीं किया, मानवमात्र की बात की।
धर्मनिरपेक्षता पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों की किसी अवधारणा पर जब हम भारत के परिप्रेक्ष्य में बात करते हैं तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि उनके यहाँ वह अवधारणा किन परिस्थितियों में पैदा हुई और हमारी अपनी परिस्थितियाँ क्या हैं। हमारे यहाँ सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक वैविध्य को केवल स्वीकार नहीं किया गया, इसका हमेशा जश्न मनाया गया। बल्कि सच कहें तो इसका जश्न मनाने की ही परंपरा रही है हमारी। इसका उदाहरण है ऋग्वेद का यह वाक्य एको सत विप्रा बहुधा वदंति। जबकि पश्चिम में इसे हमेशा शक-शुबहे की नजर से देखा गया। उनके यहाँ डेमोक्रेसी और उसके साथ-साथ सेकुलरिज्म इन दोनों का उदय ही इसी संदेह के बीज से हुआ। जिन लोगों ने यूरोप का राजनीतिक इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि वहाँ डेमोक्रेसी आई ही चर्च के साथ स्टेट के टकराव से। चूंकि जनतंत्र सभी धर्मों, समूहों, लिंग और रेस के लोग शामिल हुए तो इसे आना ही था। उन्हें यह अवधारणा स्वीकार करनी पड़ी। हमें स्वीकार करनी नहीं पड़ी, हमारी संस्कृति में यह मूलभूत रूप से है।
सेकुलरिज्म के गलत अनुवाद धर्मनिरपेक्षता शब्द के प्रचलन पर श्री खान ने कहा कि जब हम धर्म की परिभाषा की बात करते हैं तो हमें महाभारत का एक प्रसंग याद आता है। शांति पर्व में युधिष्ठिर पितामह भीष्म से यह प्रश्न उठाते हैं कि धर्म की इतनी परिभाषाएं हैं, तो इनमें से हम किसे मानें कि यही धर्म है और कैसे मान लें। गौर करें कि भगवान राम भी विष्णु के अवतार हैं और श्रीकृष्ण भी। दोनों का अवतार एक ही बात के लिए हुआ, धर्म की प्रतिष्ठा के लिए। लेकिन एक की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है और एक की लीला पुरुषोत्तम के रूप में।में। क्यों?क्योंकि यह सच है कि सत्य शाश्वत है, सनातन है, लेकिन हर युग का अपना सच है। यानी धर्म का एक रूप वह जो सनातन है और एक वह जो युगधर्म है।
यही बात एक हदीस में इस तरह कही गई है कि आज जिस दौर में तुम जिंदा हो, उसका जो सिद्धांत है, उसका दसवां हिस्सा भी अगर तुमने छोड़ा तो नष्ट हो जाओगे। फिर एक समय आएगा। तब आज की बात का दसवां हिस्सा भी अगर तुम मान लोगे तो तुम्हें मोक्ष मिल जाएगा।
नेशन स्टेट को बमुश्किल दो-ढाई सौ साल पुरानी अवधारणा बताते हुए उन्होंने कहा कि जब दुनिया एकरूपता चाहती थी तब भी भारत विविधता का जश्न मना रहा था। विवेकानंद ने कहा है कि जब कोई टॉलरेंस की बात करता है तो मैं अपमानित महसूस करता है। क्योकि वह इस तरह से हमें बताता है कि हमारी आस्था उसकी कृपा पर जीवित है। हमारे यहाँ सहिष्णुता नहीं,आदर और स्वीकार्यता की परंपरा है। सभी विचारों, सभी नस्लों और सभी आस्थाओं का आदर और सबकी स्वीकार्यता। धर्म की बात तो जब आप करते हैं तो किससे निरपेक्ष होने की बात करते हैं। एक व्यक्ति एक पुत्र है, एक पिता है, एक पति है, एक भाई और हर रूप में उसके अलग-अलग धर्म हैं। धर्म यानी समाज के प्रति आपका दायित्व, आपका कर्तव्य। आप इससे अलग हो कैसे सकते हैं?
मौलाना आजाद का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जब विभाजन की बात चल रही थी तो मौलाना ने इसे बार-बार खारिज किया। उन्होंने बार-बार कहा कि मजहब से अगर नेशन बनते तो आज अरबों के पचास देश क्यों हैं?
इससे पूर्व विषय की प्रस्तावना रखते हुए प्रतिष्ठान के अध्यक्ष एवं राज्यसभा के पूर्व सदस्य डॉ. महेश चंद्र शर्मा ने कहा कि मैं जानता हूँ कि धर्मनिरपेक्षता शब्द ही गलत है। जिसने भी यह अनुवाद किया वह न तो धर्म की अवधारणा को जानता था और न ही सेकुलरिज्म के इतिहास को। अलग-अलग जगहों की अपनी-अपनी अवधारणाओं के अलग-अलग परिप्रेक्ष्य होते हैं। पश्चिम में रेलिजन वर्सस स्टेट का बड़ा अध्याय है। भारत में ऐसा कभी रहा ही नहीं, हो ही नहीं सकता।
सेकुलरिज्म शब्द पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भारत के परिप्रेक्ष्य में पांथिक विविधता के लिए अगर कोई शब्द हो सकता है तो वह है सर्वधर्म समभाव। भारत के लिए सेकुलरिज्म की परिभाषा यही हो सकती है। सेकुलरिज्म के नाम पर अंग्रेजों ने हमारे समाज में एक अजीब विभाजन किया। आस्था और उसे मानने वालों की संख्या के आधार पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक। यह विभाजन से भी ज्यादा खतरनाक है। अपने ही नागरिकों को हम दो हिस्सों में बाँटते हैं। वह बिना किसी प्रकार की परिभाषा के।
राज्यसभा सदस्य एवं भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आइसीसीआर) के अध्यक्ष डॉ. विनय सहस्रबुद्धे ने अपनी बात रखते हुए प्रश्न उठाया कि पंथनिरपेक्षता की मूलभूत बात क्या है? यही न कि उपास्य या उपासना पद्धति के आधार पर कोई निर्णय नहीं होगा। भारत में तो यह बात हमेशा रही है। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ या ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जब हम कहते हैं तो इसका कहीं यह अर्थ है क्या कि यह केवल हिंदू के लिए है। यह तो हम सबके लिए कहते हैं। यह हमारा कोई आज का चिंतन नहीं है। यही हमारा सार्वकालिक-शाश्वत चिंतन है।
डॉ. सहस्रबुद्धे ने कहा कि इस दृष्टि से देखें तो भारत आध्यात्मिक जनतंत्र की जन्मभूमि है। यहाँ किसी को किसी पंथ या देव के आधार पर उच्चाधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ अस्मिताओं के विलय की बात नहीं है, सभी अस्मिताओं के साथ-साथ बरकरार रहने की बात की गई और यह व्यवहार रूप में भी हुआ। इसी परिप्रेक्ष्य में कई ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उदारता अच्छी बात है, लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि अपनी उदारता के चलते हम दूसरे की अनुदारता को स्वीकार करने की गलती करें। एक भारत श्रेष्ठ भारत बने,इसके लिए हमें ओवर सिंप्लिफिकेशन से दूर होना होगा। वोटबैंक की राजनीति को खत्म करना होगा। संघ के वरिष्ठ नेता श्री मदनदास देवी की उपस्थिति में संपन्न हुए इस व्याख्यान कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान के प्रधान सचिव श्री अतुल जैन ने किया।