लेखकः डा. मोहम्मद अलीम
भारतीय समाज में मुसलमानों की स्थिति हमेशा से विवाद का विषय रही है। कभी इसकी अशिक्षा के कारण, तो कभी इसकी ग़रीबी और अन्य कुप्रथाओं के कारण।
पिछले कई वर्षों से जब से एन.डी.ए सरकार सत्ता में आई है, तब से एक बार में तीन तलाक को लेकर गर्मागरम बहस का सिलसिला जारी है। अधिक तीव्रता तब आई जब मोदी सरकार ने इसके खिलाफ क़ानून बनाने की बात आरंभ की। फिर उसके पक्ष और विपक्ष में बहसों और विरोधों को एक लंबा सिलसिला चल निकला। मगर आज अंततः तीन तलाक़ विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद यह राज्यसभा में भी पारित हो गया और इस प्रकार इस बहस को एक विराम मिला और इससे निस्संदेह उन मुस्लिम महिलाओं को ज़रूर राहत नसीब होगी जो अपने अनपढ़, पागल और गैर इस्लामी रविश पर चलने वाले पतियों के ज़ुल्मो सितम के कारण तीन तलाक़ की मार झेलने के लिए मजबूर होती हैं। एक तो उन्हें बात बे बात पर तीन तलाक़ दे कर उनकी ज़िंदगी तबाह की जाती है बल्कि हलाला जैसी गंदगी से भी उनको कभी कभी गुज़रने के लिए मजबूर किया जाता है। तीन तलाक़ का तरीक़ा भी अक्सर बहुत गै़रज़िम्मेदाराना होता है यानि कोई पर्ची पर लिख कर, कोई फोन पर, कोई गुस्से में आ कर बिना किसी ठोस कारण के, या फिर शराब पी कर, मार पिटाई कर के अपनी बीवी को तीन तलाक के बाण से छलनी करते हुए न केवल उन्हें सदा के लिए अपनी जिंदगी से बेदख़ल कर देता है बल्कि उनकी आने वाली जिं़दगी भी हमेशा के लिए जहन्नम बना देते हैं। उनके पास सिवाए दर-दर भटकने और ज़िल्लत की जिं़दगी जीने के और कोई दूसरा चारा नहीं रह जाता।
उसके बाद यदि किसी पति को कुछ गलत करने का एहसास सताता है या फिर उसे फिर से अपनी बीवी बच्चों के साथ होने की जरूरत महसूस होती है तो हलाला जैसी कुप्रथा का उन्हें शिकार बनाया जाता है जो किसी भी सभ्य समाज के लिए बेहद शर्मिंदगी की बात है। आख़िर कौन व्यक्ति ऐसा चाहेगा कि उसे अपनी शादी को बचाने के लिए बीवी को किसी दूसरे मर्द के बिस्तर की ज़ीनत बनाए ?
हैरत की बात यह है कि तीन तलाक के पक्ष में बात करने वाले लोग इसे तलाक-ए-बिदअत कहते हैं यानि एक बुरी और नाजायज़ तलाक़। मगर उस नाजाएज़ और बिदअत को समाप्त करने के लिए किसी मुहिम का हिस्सा भी नहीं बनना चाहते। यहां तक कि कुरान में तलाक़ की जो विधि बताई गई है कि अगर पति और पत्नी में निबाह मुश्किल हो जाए तो उसे चाहिए कि वह तीन महीने की अवधि में सोच समझ कर तलाक़ दें। यानि तीन अलग अलग माहवारी के बीतने के बाद ताकि औरत और मर्द दोनों को इस बात का पूरा मौक़ा मिल जाए कि वह अपने विवाद को आपस में सलाह मश्विरे या ख़ानदान वालों के सहयोग से हल कर लें। और अगर हल की कोई सूरत न निकले तो फिर तीन महीने के बाद अंतिम तलाक दे कर सदा के लिए दोनों अलग हो जाएं।
यह अल्लाह का बनाया हुआ एक ऐसा कानून है जिससे औरत और मर्द दोनों की शान में कोई कमी नहीं आती। लेकिन मुसलमानों को एक तबक़ा ऐसा है जो कठहुज्जती की सारी सीमाएं पार करते हुए तीन तलाक़ की इस बिदअत और बुराई को जारी रखना चाहता है।
कुछ लोगों ने यह शंका जाहिर की कि तीन तलाक़ पर क़ानून बन जाने के बाद जो कि अब बन चुका है, पति जेल चला जाएगा तो फिर पत्नी का भरन पोषण कौन करेगा। मगर उनसे कोई यह नहीं पूछता है कि ऐसा पति जो अपनी पत्नी को ऐसी नाकारा चीज समझता हो जो उसे तीन तलाक एक सांस में बोल कर अपनी जिं़दगी से बड़ी बेइज़्ज़ती और ज़िल्लत के साथ निकाल फेंकता हो, ऐसे पतियों पर भला कौन पत्नी आंसू बहाना चाहेगी। आख़िर उसके पास आंसू बहाने के लिए बचता ही क्या है ? उसे तो इस बात की चिंता सताएगी कि उसको इस जुल्म से कैसे निजात दिलाया जाए और साथ ही पति की ज़िम्मेदारी तय की जाए कि अगर उसने ग़लत किया है तो उसे सज़ा भी भुगतनी पड़ेगी।
मेरा मानना है कि इस विधेयक के पास होने के बाद कम से कम एक सांस में तीन तलाक़ देने वाले लोग सौ बार सोचेंगे कि ऐसा कर के वह अपने घर परिवार को तो तबाह व बर्बाद कर ही रहे हैं, साथ ही उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ेगी और दूसरी सजाएं भी भुगतनी पड़ेगी।
आश्चर्य से तो इस बात पर भी होता है कि जिस इस्लाम धर्म में महिलाओं को काफी इज़्ज़त और प्रतिष्ठा दी गई है और जिसे इतना तक हक़ दिया गया है कि कोई उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसकी शादी तक नहीं कर सकता चाहे वह उसका मां बाप, भाई या कोई अन्य रिश्तेदार ही क्यों न हो, और उसे अपने मां बाप की जायदाद में विरासत का हक़दार माना गया है, उसके साथ जिहलात के अंधेरे में घिरे मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा हर प्रकार के इस्लामी अधिकारों से वंचित भी करना चाहता है और साथ ही वह उनके हितों का ढिंढ़ोरा भी पीटते हैं। जो केवल ढ़िंढ़ोरा ही बन कर रह जाता है, हक़ीक़त की ज़मीन पर उसको अमल में बिल्कुल ही नहीं लाया जाता।
आख़िर कितने लोग हैं जो अपनी बहनों को उचित मानों में इस्लामी कानून के अनुसार उनको तलाक देते हैं, उनकी शादियां करते हैं या फिर उनको विरासत में बिना मांगे हक़ देते हैं ?
अगर वे ऐसा नहीं करते तो इस्लाम की नज़र में गुनहगार तो हैं ही, साथ ही लाखों करोड़ों मुस्लिम बहनों, माओं और बेटियों के हक़ में बहुत बड़ा सामाजिक अपराध भी करते हैं। और कोई भी सभ्य समाज किसी कुप्रथा को मज़हब और धर्म के नाम पर उचित कैसे ठहरा सकता है ?
डा. मोहम्मद अलीम संस्कृति पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकार, नाटककार, पटकथा लेखक एवं पत्रकार हैं ।