सिंध का बंटवारा पंजाब और बंगाल से अलग है

 

सिंध को हमसे बिछड़े 75 बरस हुए! सिंधियों की जो पीढ़ी बंटवारे के दौरान इस पार आई थी उनमें से ज्यादातर अब इस दुनिया में नहीं हैं.बचे-खुचे कुछ बूढ़ों की धुंधली यादों के सिवा अब सिंध सिर्फ हमारे राष्ट्रगान में रह गया है.इन 75 सालों में हमें यह एहसास ही नहीं हुआ कि हमने सिंध को खो दिया है.इस बीच सिंधियों की दो पीढ़ियां आ गई हैं पर सिंध और सिंधियों के पलायन के बारे में हम अब भी ज्यादा कुछ नहीं जानते.

बंटवारे का सबसे ज्यादा असर जिन तीन कौमों पर पड़ा उनमें पंजाबी,बंगाली और सिंधी थे. मगर बंटवारे का सारा साहित्य फिल्में और तस्वीरें पंजाब और बंगाल की कहानियों से भरी हैं.मंटो के अफसानों से भीष्म साहनी की ‘तमस’ तक बंटवारे के साहित्य में पंजाब और बंगाल की कहानियां हैं.सिंध उनमें कहीं नहीं है.पंजाबी और बंगालियों के मुकाबले सिंधियों का विस्थापन अलग था.पंजाब और बंगाल का बंटवारा एक बड़े सूबे के बीच एक लकीर खींच कर दो हिस्सों में बांटकर किया गया था.सरहद के दोनों तरफ भाषा,खान पान और जीने के तौर तरीके एक से थे।

सिंधियों के प्रांत का विभाजन नहीं हुआ था।उनसे पूरा का पूरा प्रांत छीनकर उन्हें बेघर और अनाथ कर दिया गया था।

यह बात हैरान करती है कि हमारे साहित्यकारों, इतिहासकारों ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की, कि बंगाल और पंजाब की तरह सिंध का विभाजन क्यों नहीं हुआ ?क्यों 12 लाख हिंदू सिंधियों को देशभर में बिखर जाना पड़ा ?
अगर विभाजन का आधार धर्म था तो सिंध तो पश्चिम की तरफ हिंदू धर्म का आखिरी छोर माना जाता है!वह सिंध जहां के राजा दाहिरसेन अंतिम हिंदू सम्राट माने जाते हैं !
वह सिंध जहां 1940 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देशभर के मुकाबले सबसे अधिक प्रचारक रहते थे!
उस सिंध को सिंधी हिन्दू पूरा का पूरा छोड़ आए…?इस सवाल को समझने के लिए आपको विभाजन के पंजाबी और बंगाली अनुभव को भूलना होगा .
बंटवारे के वक्त सिंध का माहौल पूरे देश से अलग था. वहां न तो कोई कौमी दंगे थे ना हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत का माहौल.ज्यादातर सिंधी मानते थे कि बंटवारा एक अफवाह है,और हमें कहीं नहीं जाना है.

नंदिता भावनानी अपनी किताब ‘मेकिंग ऑफ एग्जाइल’ में लिखती हैं -“3 जून 1947 को माउंटबैटन ने भारत की आजादी की घोषणा की..” तब बिहार , दिल्ली , लाहौर , कलकत्ता समेत तमाम जगहों पर कौमी दंगे चल रहे थे।
पर सिंध लगातार शांत बना रहा .”इक्का-दुक्का हादसों को छोड़ दें तो सिंधी हिंदू अपने सिंधी मुसलमान भाइयों के साथ अमन और मोहब्बत के साथ रहे।शांति और भाईचारे की वजह से सिंधियों को लगा कुछ दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा।गांधी ने जो यूटोपियन ख्वाब देखा था सिंध उसे सचमुच जी रहा था।
सिंध में कौमी दंगे ना होने की दो वजहें थीं।पहली सिंधियों का सूफियाना शांत स्वभाव।सिंधु नदी के पानी में शायद मोहब्बत की तासीर है कि सिंध में हिंदू और मुसलमान 1100 साल तक साझा बोली, साझी तहजीब के साथ प्रेम से रहे।बेशक धर्म अलग था,पर सिंधियों ने उसका भी तोड़ कर लिया था.सूफी दरवेशों ने सिंध को भक्ति और इबादत का एक साझा रास्ता दिखाया,जहां हिंदू मुसलमान बगैर अपना धर्म छोड़े साथ साथ इबादत सकते थे।
सूफीइज़्म पैदा भले ही सिंध में ना हुआ हो पर शांत स्वभाव वाले सिंधियों को यह रास आ गया।आज भी सिंध में सूफियों के मशहूर डेरे हैं जहां लाखों लोग इबादत के लिए जाते हैं।
सूफियाना मिजाज़ और भाईचारे के अलावा सिंध में दंगे ना होने का एक व्यावहारिक कारण भी था,एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता।1843 में अंग्रेजों के आने के बाद से सिंध में हिंदुओं ने तेजी से तरक्की की।अंग्रेजों द्वारा सिंध को बंबई प्रेसिडेंसी में शामिल करने के फैसले ने भी हिंदुओं को ताकत दी।1947 आते आते अल्पसंख्यक हिंदुओं के पास सिंध की 40% से अधिक जमीन थी।ज्यादातर व्यापार धंधा हिंदुओं के पास था।सिंधी मुसलमान जान रहे थे कि हिंदुओं के जाने का मतलब काम-धंधों का खत्म होना है।जिसका असर उनके रोजगार पर आएगा।इसलिए मुसलमानों ने आखिरी समय तक हिंदुओं को रोकने की कोशिश की।काम धंधे खत्म होने का उनका शक सही था।सिंध की आर्थिक तरक्की पर हिंदुओं के जाने का बुरा असर पड़ा।कई शहर और धंधे आज भी इस हादसे से उबर नहीं पाए हैं।

बंटवारे का पहला एहसास सिंधियों को उन मुसलमानों ने कराया जो बिहार-यूपी और कलकत्ता से निकलकर सिंध में बसने आए।मुहाजिर कहलाने वाले ये लोग अपने साथ कौमी दंगों के खौफनाक किस्से लाए थे।इन लोगों ने अफवाहों और खौफ का सिलसिला चलाया।फिर 1948 में कराची में जब दंगा हुआ तब सिंधियों का पलायन शुरू हुआ।परंतु तब भी वह घर की चाबियां पड़ोसियों को दे कर आए कि माहौल ठीक होते ही हम लौट आएंगे।कोई सिंधी हिंदू यह सोचकर नहीं निकला कि वह हमेशा के लिए अपनी मिठड़ी सिंध से जुदा हो रहा है।इस मुगालते की कीमत उन्हें चुकानी ही थी।

सिंध से भारत आने के दो रास्ते थे।पहला रेलगाड़ी द्वारा मरुस्थल पार कर जोधपुर आना और दूसरा कराची से समुद्र के रास्ते मुंबई या जामनगर।रेलगाड़ी और जहाज कम थे और लोग ज्यादा!इसलिए कराची में अपना नंबर आने तक कभी कभी 15 से 20 दिन इंतजार भी करना पड़ता था.पर ना तो इंतजार के दौरान और ना ही सफर के दौरान कोई बड़ा हादसा हुआ.सफर असुविधाजनक था पर बारह लाख सिंधी हिंदू मुंबई और जोधपुर पहुंच गए .. यह और बात है कि जोधपुर के स्टेशन और मुंबई के बंदरगाह से बाहर निकलते ही वह एक ऐसी दुनिया में आ गए थे जहां की न बोली उन्हें आती थी ना रहन-सहन पता था.अब एक अजनबी देश में अजनबी लोगों के साथ,एक अजनबी भाषा में उन्हें अपनी रोटी कमाने की जुगाड़ करनी थी।जाहिर है इस जद्दोजहद में उन्हें अपना साहित्य, भाषा ,गीत, खानपान और तहजीब की कुर्बानी देनी थी.

इतिहासकार मोहन गेहानी अपनी किताब ‘डेजर्ट लैंड टू मेन लैंड’ में सवाल उठाते हैं कि बंटवारे के वक्त किसी राजनेता ने नहीं सोचा कि सिंध का बंटवारा कैसे होगा।होना तो यह चाहिए था कि सिंधियों की कुर्बानी के बदले उन्हें एक सिंध का एक हिस्सा लेकर नया प्रांत भारत में बना कर दिया जाता,ताकि सिंधी भाषा और संस्कृति जिंदा रह सके.भारत में कच्छ का इलाका जिसकी भाषा सिंधी का ही एक डायलेक्ट है,सिंधियों को बचाने के लिए एक माकूल जगह हो सकती थी।इसके लिए कोशिश भी हुई.सिंधी नेता भाई प्रताप इस बात को लेकर महात्मा गांधी से मिले.गांधीजी ने भी कच्छ में सिंधियों को बसाने के प्रस्ताव का समर्थन किया महाराजा कच्छ ने 15000 एकड़ जमीन सिंधु रिसेटलमेंट कारपोरेशन को दान में दी।पर सिंधियों की बदनसीबी कि अचानक सरकार ने राजाओं द्वारा अपनी संपत्तियां रिश्तेदारों को दान में देने से बचाने के लिए इस तरह के दानपत्र कानून बनाकर अमान्य कर दिए।यह दानपत्र भी उसी कानून की चपेट में आ गया।फिर कानूनी लड़ाई लड़ते इतना वक्त बीत गया कि इस बीच सिंधी भारत के अलग-अलग जगहों पर बस गए।

सिंधियों के लिए अलग प्रांत की बात अब भी उठती है . बिहार के हेमंत सिंह ने एक किताब लिखी है ‘आओ हिंद में सिंध बनाएं’.उनका कहना है -जब भारत के राष्ट्रगान में सिंध है तो जमीन पर भी होना चाहिए।पर सिंध शायद किसी मेले में भारत के इतिहास की उंगली से छूट कर गुमा हुआ बच्चा है जिसके मिलने की आस हर दिन के साथ और धुंधला जाती है।जहां तक सिंधियों का सवाल है,उन्हें अब जाकर समझ आ रहा है कि जमीन के अलावा भाषा, तहजीब और वो तमाम चीजें क्या हैं,जो बंटवारे ने उनसे छीन ली.शायद अब वे समझ पा रहे हैं कि सिंधी साहित्यकार कृष्ण खटवानी की इस बात का मतलब क्या है कि- “मैं कविता कैसे लिखूं …,मेरी कलम सिंधु नदी के किनारे बहती हवाओं में ही चलती है …”

हादसा बड़ा हो तो उसे देखने के लिए थोड़ा दूर जाना पड़ता है.शायद सत्तर साल वो फासला है जिसके पार जाकर हम सिंध को खोने के नुकसान का अंदाजा लगा सकें.

फेसबुक से साभार

लेखक अज्ञात

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