आज संत कबीर दास जी की जयंती है। वह एक अनोखे संत थे। उनको किसी वंश परंपरा से बड़प्पन नहीं मिला। ऐसा बताया जाता है कि वह तालाब में तैरते हुए एक कमल के पत्ते पर मिले थे। यह तालाब वाराणसी के लहरतारा नाम की जगह पर आज भी है। नीरू और नीमा नाम के एक मुसलमान जुलाहे परिवार ने इस शिशु को तालाब के किनारे से उठा लिया और अपने बच्चे की तरह इसका पालन पोषण किया। इसलिए उनका बड़प्पन बड़ी जाति का होने के कारण भी नहीं था। नीरू नीमा के परिवार में गुजारे लायक ही आमदनी थी। कबीर का बड़प्पन धन के कारण भी नहीं था। कबीर निरक्षर थे और वह कभी किसी विद्यालय में पढने नही गये। यह सोचना चाहिए कि उनका बड़प्पन किस कारण है।
कबीर में एक फक्कड़ाना मस्ती थी। एक निर्मम अक्खड़ता थी और एक युग प्रवर्तक सोच भी थी। इसके साथ ही वह विनम्र और करुणामय भी थे। संत कबीर ने जातिगत भेदभाव, ढोंग-पाखण्ड, अंध-विश्वास, कर्मकांड, बाह्याचार तथा निरर्थक रूढ़ियों आदि का निर्भयता पूर्वक खण्डन किया। वह निर्गुण, निराकार ब्रहम के साधक थे। इस ब्रहम को उन्होंने राम नाम से पूजित किया। ईश्वर की सत्ता पर उन्हें पूरा भरोसा रहा। वैष्णवजनों के लिए वे वैष्णव-भक्त हैं, सिख पन्थ के लोग उन्हें भगत मानते हैं और अपने अनुयायियों के लिए वे भगवान् स्वरूप हैं। प्रगतिशील लोगों की दृष्टि में वे समाज सुधारक दिखते हैं। वर्ण तथा जातिगत-अहंकार के वे घोर विरोधी हैं। किसी भी प्रकार से प्रताड़ित, शोषित, पीड़ित और उपेक्षित वर्ग की संवेदनाओं के साथ वे अनन्य पक्षधर के रूप में सदा खड़े रहें। न्याय-समता-बन्धुत्व भावना के प्रतीक के रूप में संत कबीरदास एक प्रतिष्ठित स्थान पर सर्वमान्य हो गए हैं। भारतीय संत-जगत के साथ ही, आध्यात्मिक तथा समाज-जीवन में भी उन्होंने अपना विशिष्ट और सम्मानजनक स्थान बनाया है। ईश्वर प्रदत्त समता के व्यावहारिक पक्ष के लिए वे निरन्तर संघर्षरत संत हैं। उपेक्षा और आलोचनाओं से वे हार नहीं मानते। किन्तु उनके इस सम्पूर्ण सामाजिक संघर्ष का आधार ‘ईश्वर-भक्ति’ ही है।
महान संत सद्गुरु कबीरदासः
कबीर किसी दिन आधी रात को पत्नी और बच्चों को त्याग कर जंगल में तपस्या करने नही गये। उन्होंने कोई आश्रम नहीं बनाया। उन्होंने विवाह किया, उनके दो बच्चें हुए। उनके परिवार में जुलाहे का काम होता था। कबीर स्वयं भी जीवनभर कपडा बुनने का व्यवसाय करते रहे। इस प्रकार समकालीन कबीर और संत रविदास ने पारिवारिक जिम्मेवारियों को पूरा करते हुए, अपने परिश्रम से गृहस्थ चलाते हुए ईश्वर भक्ति और समाज सेवा का रास्ता दिखाया।
मध्यकाल के श्रेष्ठ संतो की तरह इन्होने भी अपनी रचनाएं सामान्य लोगों की भाषा में की। इसकारण भी उन्होंने धर्म को कुछ लोगों या जातियों की गिरफ्त से बाहर निकाल कर समाज के सब लोगों के बीच में बाँट दिया। भक्ति किसी जाति या वर्ण तक सीमित नही रही। इस पर सबका अधिकार है – हरी को भजे सो हरी का होय।
इस काल के अधिकांश भक्तों ने अपनी रचनाएँ भगवान के प्रति या भगवान को समर्पित की हैं। कबीर की रचनाएँ उन लोगों को सीधे संबोधित की है जिनके लिए वे लिखी गई हैं। कबीर की वाणी में ललकार है, चेतावनी है और रुढियों पर प्रहार करते समय निर्मम आक्रमण भी है। उन्होंने मुस्लिम समाज से पूछा:
‘कंकड़ पत्थर जोरि कर, मस्जिद लई बनाय। ता ऊपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।’
उन्होंने मूर्तिपूजक हिन्दुओं को कहा:
‘दुनिया ऐसी बावरी पत्थर पूजन जाय। घर की चाकी कोई न पूजै जिसका पीसा खाय।।’
धर्म भावना का प्रसार
कबीर निराकार के उपासक थे और जातिभेद तथा ब्राह्मण-श्रेष्ठता के प्रति इन्हें कोई सहानुभूति नहीं थी और न अवतारवाद में ही उनकी कोई आस्था थी। आसपास के बृहत्तर हिन्दू समाज के लिए ये निम्न और पिछड़े ही माने जाते थे। मुसलमान लोग इन्हें सभी प्रकार से इस्लाम कबूल कराने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील थे। संत कबीरदास इन्हीं नव मुस्लिम मतान्तरित लोगों में पले और बड़े हुए थे। ऐसा लगता है कि कबीरदास के जन्म के थोड़ा समय पूर्व ही भारत में निम्न कही जाने वाली आश्रमभ्रष्ट जाति में से कुछ लोग दवाब और आकर्षण के चलते इस्लाम में चले गए थे। जुलाहा जाति के लोग भी हिन्दू बुनकर (कोरी) जाति से मुसलमान बने लोग ही थे। लेकिन यह बात स्मरण में रखनी चाहिए कि कबीरदास का पालन-पोषण यद्यपि मुसलमान परिवार में हुआ था, किन्तु उन परिवारों के संस्कार अभी बड़ी मात्रा में हिन्दू ही थे। इसी कारण कबीरदास अपने आपको कोरी (हिन्द) नाम से पुकारते हैं :
‘हरि को नाँव-अभै-पद दाता कहै कबीरा कोरी’
एक ओर कबीरदास ने वंचित कहे जाने वाले वर्ग को साथ लेकर भेदभाव के विरुद्ध गंभीर गर्जना की, वहीं दूसरा ओर वे भगवद्भक्ति तथा प्रेम की वाणी से अपने लाखों सहजाति बंधुओं को इस्लाम से बचाकर हिन्दुत्व की ओर ले आए। कबीरदास की अपने निगुण ‘राम’ के प्रति अविचल भक्ति तथा उनके ‘ढाई आखर के प्रेम’ ने ऐसी सीढ़ी का निर्माण किया जिसके कारण लाखों लोग जो इस्लाम की ओर बढ़ रहे थे, हिन्दुत्व की ओर वापस आ गए। कबीरदास ने हिन्दू समाज के अन्दर घर कर गई बुराइयों के विरुद्ध बोलने में कोई संकोच नहीं किया, किन्तु किसी भी प्रकार से हिन्दुत्व को छोड़कर मुसलमान बनने की अनुमति तो कभी किसी को नहीं दी।
समता के उपासक
कबीरदास ने निर्भीकता से पूछा, “अला एकै नूर उपनाया, ताकी कैसी निंदा। ता नूर थै सब जग कीया, कौन भला कौन मंदा॥”
कबीरदास ने विषमता का उत्तर ताकतवर तर्कों से दिया:
ऊँच नीच है मध्ध की बानी। एकै पवन एक है पानी।
एकै मटिया एक कुम्हारा। एक सभन का सिरजनहारा॥
एक चाक सब चित्र बनाई। नाद-बिंद की मध्ध समाई॥
व्यापिक एक सकल की ज्योति। नाम धरे का कहिये भोति।।
हंस देह तज न्यारा होई। ताकर जाति कहैं धौं कोई
स्याह सफेद कि राता पियरा। अबरन बरन कि ताता सियरा।।
कहिये काहि कहा नहिं माना। दास कबीर सोई पै जाना॥
अर्थात् ‘ऊँच-नीच का कथन ही नीचता है क्योंकि संपूर्ण संसार पंचमहाभूतों अर्थात् पवन, जल, मिट्टी आदि से बनता है। सबका स्रष्टा ब्रह्म है। कुंभकार रूपी ब्रह्म ने एक ही चाक पर संपूर्ण संसार का निर्माण किया है। प्राणी, नाद-बिन्दु (रज-वीर्य) के द्वारा शरीर धारण करते है। सभी में एक ही ज्योति समान रूप से व्याप्त है। उनके अलग- अलग नाम रखकर भेद किए है। जब आत्मा इस शरीर से अलग हो जाता है. तब उसकी कौन-सी जाति रह जाती है? आत्मा श्याम है या श्वेत है, लाल है या पीली है, आत्मा का क्या कोई वर्ण हो सकता है? वह गर्म है या ठण्डा? संत कबीरदास कहते हैं कि किससे कहें कोई मानता नहीं। जो परमात्मा का सेवक है। वही वास्तविक तत्व को जानता है।
उन्होंने ब्राह्मणों से ललकार कर पूछा कि तुम जन्म से बड़े कैसे हो गये और हम छोटे कैसे हो गये। उन्होंने पूछा कि यह छुआछुत कहाँ से आई है।
ॐकार आदि है मूला, राजा परजा एकहि सूला।।
हम तुम माँ है एकै लोहू, एकै प्रान जीवन है मोहू॥
एक ही बास रहै दस मासा, सूतग पातग एकै आसा।।
एक ही जननी जन्याँ संसारा। कौन ग्यान थें भये निनारा?
अर्थात् ‘मनुष्य जन्म से ब्राह्मण या शूद्र नहीं हो सकता। चाहे राजा हो या प्रजा, सभी को उत्पन्न करने वाला ॐ अर्थात् ईश्वर है। एक ही रक्त तथा एक ही प्राण सभी में हैं। एक ही स्थान पर दस मास तक जन्म के पूर्व हम सभी रहे थे, एक ही प्रकार से माँ ने हम सभी को जन्म दिया है। इसमें तुमको कौनसा ज्ञान और अधिक प्राप्त हो गया जिससे तुम हमसे अलग हो गए?’
संत कबीरदास कहते हैं कि निर्गुण-संतों की जाति पूछना व्यर्थ हैः
संतन जात न पूछो निरगुनियाँ।
साध ब्राहमन साध छत्तरी, साथै जाती बनियाँ।
साधनमाँ छत्तीस कौम हैं, टेढ़ी तोर पुछनियाँ।
साधै नाऊ साधै धोबी, साथै जाति है बरियाँ।
साधनमाँ रैदास संत हैं, सुपच ऋषि सो भंगियाँ।
मृत्यु में भी चुनौती
कबीरदास काशी में रहते थे। माना जाता है कि काशी में मरने से मोक्ष मिलता है और मगहर में मरने वालों को नरक मिलता है। कबीर ने कहा, “काशी में मरने पर मुझे मोक्ष मिले तो फिर इसमें कबीर का क्या बड़प्पन है।” अपनी मृत्यु के पूर्व कबीर मगहर चले गए। आडम्बरों का विरोध करने वाले कबीरदास को अपने राम पर विश्वास था। कबीरदास कहते हैं कि यदि हम भी काशी में ही मरेंगे तो हमारे राम के सुमिरन का क्या अर्थ रहा? फिर राम को कौन याद करेगा? संत कबीर मृत्यु के पूर्व मगहर जाकर रहने लगे और वहीं प्राण छोड़े। मृत्यु के पूर्व कबीरदास कहते हैं कि मेरे लिए तो जैसी काशी, वैसा ही मगहर है, क्योंकि मेरे हृदय में तो मेरे स्वामी राम सदैव विराजमान हैं:
लोकामति के भोरा रे।
जौ कासी तन तजै कबीरा, तौ रामहिं कहा निहोरा रे॥
कहै कबीर सुनहु रे संतो, भरमि परै जिनि कोई।
जस कासी तस मगहर ऊसर, हिरदै राम सति होई॥
कबीर के रास्ते पर चलें
आज के समय की चुनतियां कबीर के रास्ते पर चलने का आह्वान करती है। हिन्दू समाज के सब भेदभावों को, छोटे बड़े के सब विश्वासों को हटाकर समरस समाज बनाना है। समाज को अपनी संस्कृति, परम्परा और स्मृति के अनुसार और वर्तमान काल में उपयुक्त जीवन व्यवस्था का निर्माण करना है। कोरोना से मुक्त, आत्मविश्वास भरा भारत आत्मनिर्भर हो और विश्व के सामने अनुपम राष्ट्र जीवन खड़ा करके दिखाए और यही है कबीर के मार्ग पर चलना।