देश के जाने माने इतिहासकार, वरिष्ठ पत्रकार, स्तम्भकार व संघ विचारक देवेन्द्र स्वरूप का सोमवार शाम निधन हो गया। वे 93 वर्ष के थे। वे पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। स्वांस लेने में तकलीफ होने के चलते उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती कराया गया था। उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली (वेंटीलेटर) पर रखा गया था। जहां आज शाम उन्होंने अंतिम श्वांस ली। देवेन्द्र स्वरूप ने अपने जीवनकाल में ही देहदान की घोषणा की थी। इसलिए कल (मंगलवार) उनके अंतिम दर्शन के पश्चात उनकी पार्थिव देह को चिकित्सकीय शोध के लिए दान कर दिया जाएगा।
देवेन्द्र स्वरूप को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चलता-फिरता इन्साइक्लोपीड़िया कहा जाता था। एक समय में संघ के प्रचारक रहे देवेन्द्र स्वरूप को द्वितीय सरसंघचालक गुरूजी से लेकर निवर्तमान सरसंघचालक सुदर्शन जी का बहुत सान्निध्य व स्नेह प्राप्त था। वे राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रहे भाऊराव देवरस के भी अत्यंत निकट थे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ पांचजन्य का संपादन भी किया था। इसके बावजूद वे प्रयत्नपूर्वक राजनीतिक क्षेत्र से दूर रहे।
देवेन्द्र स्वरूप गहन अध्येता व इतिहासकार होने के साथ ही संविधान रचना के भी जानकार थे। उन्होंने अनेक विषयों पर कुल मिलाकर डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं थीं।
देवेन्द्र स्वरूप- संक्षिप्त परिचय
मुरादाबाद (उ.प्र.) के कांठ कस्बे में 30 मार्च, 1926 को जन्मे। प्ररांभिक शिक्षा कांठ और चंदौसी के विद्यालयों में । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागी होने के कारण दो बार विद्यालय से निष्कासन हुआ। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. करते समय ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता बनने का संकल्प लिया । 1947 से लेकर 1960 तक संघ के प्रचारक रहे। गांधीजी की हत्या के पश्चात संघ पर लगे पहले प्रतिबन्ध के दौरान 6 माह तक कारावास में बंदी। संघ की योजना से ही 1958 में हिंदी साप्ताहिक पांचजन्य के संपादन से जुड़े । लखनऊ विवि से इतिहास से एम ए । 1964 में दिल्ली विश्वविद्यालय के पी.जी.डी.ए.वी. कालेज में इतिहास विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए, 1991 में सेवानिवृत्त। इस दौरान दिल्ली प्रदेश अ.भा. विद्यार्थी परिषद् के अध्यक्ष रहे ।1968 से 1972 तक बतौर अवैतनिक सम्पादक पांचजन्य के संपादन का कार्य भी किया। आपातकाल में भी एक बार फिर बंदी बनाए गए। 1980 से 1994 तक दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक व उपाध्यक्ष रहे । इस दौरान संस्थान की त्रेमासिक पत्रिका “मंथन” (अंग्रेजी व हिंदी) के सम्पादन का भी कार्य किया। बतौर इतिहासकार भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् से भी जुड़े रहे। अनेक पुस्तकों के लेखक, संपादक व संकलनकर्ता। पद-पुरस्कार-सम्मान के सभी आग्रहों को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार किया।