रीयल से रील पर, रील से रंगमंच पर देखिए महेश भट्ट की क्लासिक फिल्म ‘डैडी’


अतुल गंगवार

जब दर्द नहीं था सीने में क्या खाक मजा था जीने में…

पंक्तियां कहीं की है… लेकिन हमारे किरदारों पर खरी उतरती हैं। महेश भट्ट और पूजा भट्ट पर। आज से 30 बरस पहले महेश भट्ट साहब ने एक फिल्म बनाई थी ‘डैडी’ एक ऐसा बाप की कहानी जो हालात के हाथों और शराब के नशे में अपना सब कुछ गवा चुका है। बस एक आस में जी रहा है कि उसकी बेटी उसे मिल जाये। बेटी पूजा ( महेश की बेटी पूजा भट्ट की यह पहली फिल्म थी) उसे मिलती तो है लेकिन वो उसे उसी रूप में देखना चाहती है कि सारा समाज उसके पिता को सम्मान की नज़रों से देखे । अपनी बेटी के लिए वो एक बार फिर से बदलता है और अपनी शराब की लत को छोड़ देता है। पिता-पुत्री के रिश्ते कहानी थी डैडी। ये कहानी एक हकीकत थी। महेश भट्ट के अपने जीवन से प्रेरित थी। अपनी सफलता के दौर में महेश एक अल्कोहोलिक बन गए थे। सफलता के साथ शराब का नशा ना जाने उनकी ज़िन्दगी को किस ओर लिए जा रहा था। लेकिन एक दिन जब वो नशे में चूर अपने घर पंहुचे, अपनी छोटी बेटी को गोद में लिया और उसे प्यार करने को कोशिश की, तो उस मासूम ने उनसे मुंह फेर लिया। उस मुंह फेरने ने महेश भट्ट की दुनिया बदल दी और उन्होंने शराब छोड़ दी। अपनी मासूम बेटी के रिजेक्शन ने उन्हे इतना दर्द दिया कि उस दिन की छोड़ी शराब आज तीस साल बाद भी उनके होठों को दोबारा छू नही सकी है। यही दर्द फिल्म डैडी की कहानी बन कर फिल्म के रूप में 30 साल पहले दर्शकों के सामने आया।

पीढ़ी बदल गयी फिल्म कहीं खो गयी लेकिन दर्द ज़िंदा रहा। ये एक ऐसी कहानी थी जिसे वक्त भी मिटा ना सका। बाप बेटी का ये रिश्ता एक बार फिर सामने आया। इस बार किरदार बदल गए थे। अब एक बाप अपनी बेटी को अल्कोहोलिक बनते देख रहा था। इस बार पूजा भट्ट नशे का शिकार हो रही थी। लेकिन एक दिन पूजा ने अपने पिता से कहा वो उन्हे बहुत प्यार करती है वो उनके करीब रहना चाहती है। पिता ने मेसेज भेजा अगर वो उनसे प्यार करती है तो वो सबसे पहले खुद से प्यार करे क्यूंकि वो खुद पूजा के अंदर रहते हैं। अगर वो खुद से प्यार करेगी तो वो सारा प्यार उन्हे मिलेगा। बस फिर एक खामोशी…

इस खामोशी ने पूजा की जिन्दगी बदल दी और उसने खुद से लड़ाई की। कसम खायी की वो शराब नही पियेगी। उस एक संदेश ने उसके जीवन की दिशा बदल दी और अब वो शराब नही पीती। खैर बाप बेटी के इस रिश्ते को, उनकी फाइटर स्प्रिट को एक बार फिर से दर्शकों के सामने पेश करने का बीड़ा उठाया गया। एक कालजयी फिल्म को दर्शकों के सामने एक नये रुप में पेश किया गया। सिनेमा का पर्दे अब रंगमच में बदल गया। एक बार फिर परदा उठा। जगह थी श्रीराम कला केन्द्र का मंच। इस बार जीते जागते किरदार ‘डैडी’ को रंगमेच पर प्रस्तुत कर रहे थे। खबरिया दुनिया के जाने माने नाम दिनेश गौतम ने फिल्म डैडी का नाट्य रूपातंर कर इसे एक बार फिर से दर्शकों के सामने पेश किया।

आईना मुझ से मेरी पहली सी सूरत मांगे…

जिन लोगों ने ‘डैडी’ फिल्म को देखा था उनके लिए नाटक ‘डैडी’ देखना एक दिव्य अनुभव ( मैं भी उनमें से एक हूं) था। दिनेश ने फिल्म की आत्मा को मरने नही दिया। ये आसान काम नही था। फिल्म में अनुपम खेर जैसे मंझे हुए अभिनेता ने आनंद सरीन को पर्दे पर अमर कर दिया था। पूजा के किरदार को पूजा भट्ट ने पहली फिल्म होने के बावजूद जिस सहजता से जिया था वो काबिले तारीफ था। साथी कलाकारों में नीना गुप्ता, मनोहर सिंह, प्रमोद माउथो, आकाश खुराना और सुलभा आर्या जैसे कलाकारों ने फिल्म में अपने अभिनय की छाप छोड़ी थी। फिल्म का संगीत आज भी लोगों की यादों में ताजा है। ऐसे में दिनेश गौतम के लिए ना केवल कलम की चुनौती थी बल्कि बतौर निर्देशक फिल्मकार महेश भट्ट की उंचाइयों को छूने की भी चुनौती थी। ये काम और भी मुश्किल तब हुआ जब स्वयं महेश और पूजा भट्ट के सामने इस नाटक का प्रदर्शन होना था।

महेश भट्ट ने जब इस फिल्म के नाट्यरूपातंर को प्रदर्शन की स्वीकृति दी तो दिनेश ने बतौर लेखक पहली परीक्षा पास कर ली। अब दूसरी चुनौती थी दर्शकों के सामने इस नाटक को पेश करने की। रंगमंच सिनेमा की तरह नही होता। यहां मिलने वाली तालियां और गालिया दोनो अपने कानो से सुननी पड़ती हैं। बरसों की सोच, मेहनत एक पल में मिट्टी हो सकती है। लेकिन यहां तारीफ करनी होगी दिनेश के निर्देशन और उनके द्वारा चुने गए कलाकारों की। एक बार भी नही लगा कि हम कुछ ऐसा देख रहे हैं जो पहले कभी देखा था। किरदार वही थे, नाम वही थे, कहानी की आत्मा वही थी, दर्द वही था लेकिन सब कुछ इतनी कुशलता से पिरोया गया था… एक ताज़गी का अहसास हुआ। आनंद सरीन को जिस तरह से इमरान जाहिद ने जिया वो अनुपम खेर की छाया से अलग निकल गए। चेतना ध्यानी पूजा के किरदार में अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहीं। कामता प्रसाद के किरदार में कर्नल धीरेन्द्र गुप्ता खूब जमें। बाकी कलाकार भी अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब हुए। लेखक-निर्देशक दिनेश गौतम ने लगे हाथों एक छोटा सा किरदार प्रभावशाली ढंग से निभाकर अपने अंदर के कलाकार को भी दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया।

आखिर में जब दर्शकों ने तालियां बजाकर अपनी प्रशंसा को व्यक्त किया तो निर्देशक के रूप में भी दिनेश गौतम ने दर्शकों का प्यार पाया।

‘डैडी’ उनके लिए है जो जीवन को सकारात्मक नज़रिए से देखते हैं। ये उन लोगों के लिए तिनके का सहारा है जो नशे में डूब रहे हैं। ये महेश भट्ट और पूजा भट्ट के उस संघर्ष की कहानी है जो उन्होंने खुद से किया। ये अपनो का साथ निभाने की कहानी है। 30 साल बाद इस कहानी को देखना आज भी कई लोगों के लिए प्रेरणादायी हो सकता है। दिनेश गौतम और उनकी टीम बधाई के पात्र हैं।

अंत में एक शिकायत भी है लेकिन वो नाटक की टीम से नही है, वो शिकायत है श्रीराम सेंटर के प्रबंधन से, यहां का साउंड सिस्टम प्रभावशाली नही लगा। दिल्ली में नाटक के लिए दर्शक जुटाना भारी पड़ता है, उस पर इतनी प्रतिष्ठित जगह का साउंड सिस्टम अच्छा ना हो तो ये कलाकारों की प्रतिभा के साथ अन्याय होगा। उम्मीद है प्रबंधन इस ओर ध्यान देगा।

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