पठान का विरोध राजनीतिक या सामाजिक…

 

एक कहावत है कि कुत्ते की दुम चौदह साल नलकी में डाल कर रखो, जब बाहर निकालोगे तो टेढ़ी की टेढ़ी निकलेगी. ठीक यही हाल बॉलीवुड यानि हिंदी सिनेमा का है. लगातार असफलता का दंश झेल रहे हिंदी सिनेमा से जुड़े फिल्म निर्माताओं को लगता है अभी भी बुद्धि नहीं आई है जो दर्शकों से पंगा ले रहे हैं. सिनेमा को समाज का दर्पण कहने वाले ये लोग ना जाने कौन सी दुनिया में जी रहे हैं, ना जाने कौन से समाज का चित्रण कर रहे हैं कि समाज ही उनके विरोध में खड़ा हो गया है लेकिन ये हैं कि समाज से ही भिड़े जा रहे हैं. अब विवाद में हैं शाहरुख खान. उनकी फिल्म ‘पठान’ का एक गाना ‘बेशर्म रंग’ इस समय चर्चा में बना हुआ है. इस गाने में दीपिका पादुकोण केसरी रंग की बिकिनी में ‘बेशर्म रंग’ पर फूहड़ नृत्य करते दिखाई दे रही हैं. अब कुछ लोगों का मानना है की रंग तो रंग है, दीपिका ने ओर भी रंग इस गीत में पहने हैं, तो केवल केसरी रंग पर ही विवाद क्यों? क्या इसलिए कि ये देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था का रंग है और देश में एक ऐसे राजनैतिक दल की सरकार है जो भारत की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए शासन कर रही है और फिल्मकारों को लगता है कि ये विरोध सिर्फ इसलिए किया जा रहा है आज बहुसंख्यक समाज के पास सत्ता की ताक़त है. सच तो ये है कि सिनेमा को समाज का दर्पण कहने वाले फिल्मकार पैसा कमाने की हवस में कब समाज की भावनाओ से खिलवाड़ करने लगे उन्हें भी समझ नहीं आया. अभी भी ‘बायकाट बॉलीवुड’ के पीछे के कारणों को वो समझने के लिए तैयार नहीं है.

‘पठान’ के ‘बेशर्म रंग’ विवाद में किसको फायदा होगा ये कहना तो मुश्किल है. लेकिन इस बार बॉलीवुड ने भी मोर्चा खोल दिया है. अभी हाल ही में सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन साहब ने कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सेंसरशिप के इतिहास को याद किया लेकिन इमरजेंसी को भूल गए। बंगाल की धरती पर उनको मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता की याद आई लेकिन नक्सलबाड़ी के दौरान हुई हत्याओं को भूल गए। उनको एक बार भी याद नहीं आया की किस तरह से फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ के सारे प्रिंट मय निगेटिव के जला दिए गए थे. किशोर कुमार के गानों को रेडिओ-टीवी पर बजने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था. देवानंद को प्रताड़ित किया गया था. अदूर गोपालकृष्णन को भी सुपर सेंसरशिप की याद आ रही है। यहाँ फिल्म के नायक शाहरुख़ खान साहब भी उनके सुर में सुर मिलते नज़र आये. शाहरुख खान अपनी फिल्म ‘पठान’ पर उठे विवाद पर बोलते हुए इंटरनेट पर सोशल मीडिया की नकारात्मकता पर बात की. उनका एक विडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है जिसमे वो कहते दिखाए दे रहे हैं कि वो कोई सूखा पत्ता नहीं हैं जो फूंक मारने से उड़ जायेंगे. साहेब अब आप उड़ेंगे या नहीं ये तो वक़्त ही बताएगा लेकिन आँख बंद करने से यदि आपको कुछ नहीं दिख रहा है तो इसका मतलब ये नहीं कि दुनिया भी नहीं देख पा रही है. पिछले कुछ समय से बायकाट संबंधी तमाम विवादों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, तमाम हिंदूवादी संगठनों का नाम घसीट कर इस मामले को हिंदुत्व बनाम बॉलीवुड बनाने का प्रयास किया जा रहा है. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या वास्तव में ये सारा खेल हिंदुत्ववादी संगठनों का रचा गया है? अब अगर बॉलीवुड के लोगों का ये ही मानना है तो मुझे लगता है आने वाले दिनों में भी उनकी मुश्किलें कम नहीं होने वाली.

२०१४ में देश में एक ऐसी सरकार आयी जिसे देश की जनता ने पूर्ण बहुमत देकर चुना था. इस दल ने देश के बहुसंख्यक समाज के स्व को जागृत करने का कार्य किया. आजादी के वर्षों बाद उस समाज को ये लगा कि देश में उसके हितों की चिंता करने वाली सरकार आई है. एक ऐसी सरकार आई है जो सबका साथ, सबका विकास की भावना के साथ काम कर रही है. महज वोटों के लिए समाज विशेष का तुष्टिकरण नहीं कर रही है. ये वो सरकार है जिसने देश में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता खोला. आज अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो रहा है. धारा-370, 35 ए, जैसे विघटनकारी धाराओं को हटाकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक राष्ट्र को एकजुट करने का काम कर रही है. आज देश की वैश्विक स्तर पर बढती ताक़त ने समाज को गौरवान्वित किया है. उसके आत्मबल को बढ़ाया है. लेकिन क्या ये सब सिर्फ देश के बहुसंख्यक समाज के लिए हुआ है? नहीं ये सब हर भारतीय के लिए हुआ है. हर उस व्यक्ति के लिए हुआ है जिसे हिन्दुस्तानी होने में गर्व है. देश में पहली बार गर्व से कहो हम हिंदू है ये किसी दल विशेष का नारा नहीं, देश के बहुसंख्यक समाज के आत्मसम्मान का प्रतीक बन गया है. आज विश्व में हिंदू दर्शन की स्वीकार्यता है. संपूर्ण विश्व शांति के नायक के रूप में हमारी ओर देख रहा है. और ये बॉलीवुड इस बात को समझने को तैयार ही नहीं है कि जिस तरह से देश में बिना धर्म विशेष के लोगों के समर्थन के बिना एक राष्ट्रीय विचार की सरकार बन सकती है उसी तरह से बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को ठेस पहुंचाकर आप अपनी फिल्म को हिट नहीं करा सकते.

ये इत्तेफाक तो नहीं हो सकता कि कोलकोता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के मंच पर सरकार विरोधी मानसिकता के लोग एक साथ बैठें हों. अब ये कैसे संभव है कि आप तो सरकार विरोधी ताक़तों के साथ खड़े हों और सरकार समर्थक आपको सस्ते में छोड़ दें. लेकिन इस लड़ाई को सेंसरशिप या अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले से जोड़ना गलत होगा. यदि सरकार सेंसरशिप को थोपती तो क्या ये फिल्में कभी पास हो पाती? यहाँ सवाल तो ये भी खड़ा होता है कि जिस तरह का फूहड़ नृत्य इस गाने में दीपिका कर रहीं हैं उसको देख कर समाज में क्या प्रभाव होगा? और क्या ये विरोध फिल्म का है या फिर उन लोगों का जो खुलेआम देश तोड़ने की बात करने वाली ताक़तों के साथ खड़े नजर आते हैं? उन मंचों पर खड़े आते हैं जहाँ देश को कमजोर करने वाली ताक़ते उनके साथ होती हैं. क्या अब बॉलीवुड को आत्ममंथन नहीं करना चाहिए? उसको अपनी भूमिका पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? क्या वो देशहित में फिल्में नहीं बना सकती? क्या उसको दक्षिण भारतीय सिनेमा की सफलता से सीखना नहीं चाहिए? अब ये तो नहीं हो सकता की ‘द कश्मीर फाइल्स’ को वल्गर और प्रोपेगंडा फिल्म बताया जाये तो आप खामोश रहें, और जब बात ‘पठान’ की हो तो आपका ‘बेशर्म रंग’ बेपर्दा हो जाये. हो सकता है ‘पठान’ टिकट खिड़की पर कामयाब भी हो जाए क्योंकि देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो देश के टुकड़े टुकड़े करने में विश्वास रखते हैं. लेकिन एक दिन तो आयेगा जब आपको इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.

सच तो ये है कि अब अगर बॉलीवुड जितनी जल्दी इस बात को समझ जाये कि उनका विरोध अब एक राजनैतिक विचारधारा नहीं कर रही है, उनका विरोध अब जागृत समाज कर रहा है. इस समाज की भावनाओं की अनदेखी करना उसके लिए आत्मघाती होगा. अपनी अन्दर की गंदगी को समाज का दर्पण बता कर परोसने का वक़्त गया. अब फिल्म दर फिल्म आपका हिसाब किया जायेगा. आप भी जाग जाइये नहीं तो कहीं ऐसा ना हो समाज से भिड़ने की कीमत आपको चुकानी पड़े, माफ़ कीजिये इसको धमकी मत समझिएगा ये विनम्र सलाह है आपको. देश की ताक़त बनिए ना की देश तोड़ने वालों की. अपनी जिम्मेदारी का अहसास कीजिये. ये पब्लिक है बाबू अगर अर्श पर पहुंचाने की ताक़त रखती है, तो फर्श पर लाने की ताक़त भी रखती है. और हां, हो सकता है की बिकिनी का रंग फाइनल रिलीज़ के वक़्त बदल जाये पर पब्लिक का इरादा बदलेगा? ये देखना होगा.

 

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