7 फरवरी 2016 की शाम को एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैंने निदा साहब को फोन किया। वे कुछ उखड़ी-उखड़ी सी बातें कर रहे थे। मुझे लगा शायद किसी बात पर नाराज हैं। फिर लगा शाम की धुनकी में भी हो सकते हैं। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि वे मुझे पहचान रहे हैं। इससे पहले कभी उन्होंने मुझसे इस तरह बात नहीं की थी। जैसे ही फोन मिलता था या मिलना होता था, वे खुश होकर पूछते, गणेश जी क्या हाल हैं आपके? मैंने पूछा तबियत ठीक है आपकी? हां, कहते हुए उन्होंने अगले दिन कॉल करने के लिए कहा।
अगली सुबह मैंने निदा साहब को फोन लगाया। घंटी बजती रही, फोन नहीं उठा। मैंने उन्हें लगातार कई कॉल किए, लेकिन जवाब नहीं मिला। थोड़ा अजीब लगा। कोई तो फोन उठाता, उनकी पत्नी मालती जी या बेटी तहरीर। उधर मेरे मित्र मनीष कोच्छड़ मुझे देहरादून से फोन कर डेट के बारे में पूछ रहे थे। आखिर मैंने उनका फोन उठाना बंद कर दिया। क्या बताता उन्हें कि निदा साहब फोन नहीं उठा रहे हैं। तभी मुंबई से मुझे फोन आया और मित्र आशीष ने बताया कि निदा साहब नहीं रहे। मैं सन्न रह गया। अवाक रह गया। 18 साल पुराना रिश्ता अचानक ही खत्म हो गया।
कुछ सोच पाता कि फोन की घंटी दोबारा बजी। निदा जी का नंबर था। मुझे लगा मित्र को गलत खबर मिली होगी। मैंने कॉल उठाया। निदा साहब की बिटिया की आवाज़ आई, अंकल पापा नहीं रहे…।
बीते 18 बरस मेरे जेहन में सिनेमा की रील की तरह घूम गए। मुझे मुंबई में पहचान दिलाने वाले, मेरे जीवन को दिशा देने वाले, सोच में सकारात्मकता लाने वाले निदा साहब यूं खामोशी से चले जाएंगे, ऐसा कभी सोचा ही नहीं था। पिछले लगभग डेढ़ साल में हम एक प्रोजेक्ट पर लगातार काम कर रहे थे। उनकी लिखी गजलों का अल्बम ‘सुनो तुम’ तैयार हो रहा था। अल्बम में युवा प्रतिभाशाली संगीतकार-गायक जैजिम शर्मा को प्रस्तुत किया जा रहा था। टॉम ऑल्टर जी ने भी उनकी शायरी को आवाज दी थी। निदा साहब की पत्नी मालती जी ने दोहे प्रस्तुत किए थे और पारुल मिश्रा ने भी जैजिम का साथ दिया था। निदा साहब की गजलों पर प्रसिद्ध चित्रकार गीता दास ने पेंटिंग्स बनाई थीं। मुझे सौभाग्य मिला कि यह अल्बम हमारी कंपनी ने प्रोड्यूस किया। निदा साहब की पैनी नजर इस अल्बम पर बनी हुई थी। मुझे लगा कि 18 साल से जिन निदा को मैं जानता हूं, उन्हें अब तक बिल्कुल भी नहीं जान पाया हूं। उन्हीं का लिखा शेर है-
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।
लोग कहते थे कि तुम निदा के साथ काम कैसे करते हो? उन्हें झेलते कैसे हो? मुझे हैरत होती थी कि लोग उनके बारे में ऐसा कैसे सोचते हैं? वे जानते थे कि मैं संघ की पृष्ठभूमि से हूं। विद्यार्थी परिषद् की ओर से छात्रसंघ का चुनाव लड़ चुका हूं। उनका झुकाव गैर-संघी विचारधारा की ओर था। उन्हें तकलीफ थी मोदी के बढ़ते प्रभाव से, गुजरात के दंगे उन्हें व्यथित करते थे। लेकिन जब मैं कहता था कि इस कहानी को आप गोधरा से शुरू कीजिए, तो वे मेरे विचार को भी सम्मान देते थे। उस समय थोड़ा सहमत भी होते थे। हालांकि अगले दिन की चर्चा गुजरात से ही शुरू होती थी। निदा जी अगर कट्टर हिंदुत्व पर लिखते थे, तो कट्टर इस्लाम पर भी लिखने का दम रखते थे। उन्होंने कहा-
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
पाकिस्तान में एक मुशायरे में यह शेर पढ़कर जब वे मंच से उतरे, तो कुछ कट्टरपंथियों ने पूछा कि अल्लाह की मस्जिद की तुलना किसी बच्चे की हंसी से कर आपने अल्लाह की तौहीन की है। निदा साहब का कहना था कि अल्लाह की मस्जिद को इंसान के हाथ बनाते हैं और बच्चे को खुद अल्लाह बनाते हैं, तो बड़ा कौन हुआ? अल्लाह का बनाया बच्चा या फिर इंसान की बनाई मस्जिद?
जिंदगी को उन्होंने हर रंग में जिया। उन्होंने हिंदुस्तान से मुहब्बत में अपने परिवार को भी छोड़ दिया। उनका कुनबा विभाजन के बाद पाकिस्तान चला गया था। वे परिवार के एकमात्र सदस्य थे, जो यहीं रह गए। परिवार से बिछुड़ने का गम उन्हें हमेशा रहा। जो उनकी शायरी में दिखता भी रहा। मां की याद में उन्होंने लिखा-
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां,
याद आती है चौका, बासन, चिमटा, फुंकनी जैसी मां।
‘सुनो तुम’ अल्बम निदा साहब की जिंदगी की तस्वीर थी। उसमें शामिल उनकी रचनाओं का ताल्लुक उनके जीवन से था। उसमें उनकी अधूरी मुहब्बत भी शामिल थी- (वो लड़की याद आती है), (कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है, तुमको भूल ना पाएंगे हम, ऐसा लगता है)। पिता की मृत्यु के बाद उनके अंतिम दर्शन न कर पाने का दर्द (तुम्हारी कब्र पर मैं फातिहा पढ़ने नहीं आया) और बच्चों के प्रति मुहब्बत (नदी में स्नान करके सूरज, सुनहरी मलमल की पगड़ी बांधे सड़क किनारे खड़ा हुआ मुस्करा रहा है कि बच्चा स्कूल जा रहा है) अल्बम में शामिल थी। वे पाकिस्तान और हिंदुस्तान में इंसान के हालात पर लिखते हैं-
इंसान में हैवान यहां भी है, वहां भी,
अल्लाह निगहबान यहां भी है, वहां भी।
और ये शेर देखिए-
हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में,
इंसान परेशान यहां भी है, वहां भी।
उन्हें जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी। थी तो बस एक कसक, जिसे वे अपने शब्दों में कुछ यूं कहते हैं-
कहीं छत थी, दीवार-ओ-दर थे कहीं,
मिला घर का पता मुझे देर से।
दिया तो बहुत जिंदगी ने मुझे,
मगर जो दिया वो दिया देर से ।
निदा साहब का अनुभव उनकी उम्र से बहुत ज्यादा था। उनकी शायरी में गजल के 750 वर्षों के इतिहास का तत्व था। सीधी-सादी भाषा। हर खास और आम को समझ में आने वाली। शब्दों की ऐसी रवानगी कि एहसास अर्से तक रहे-
अल्ला वो कुरआन में, रामायण में राम,
जितनी जग में बोलियां उतने उनके नाम।
चलता करघा ताल दे, गाए संत कबीर,
तुझमें मेरा देवता, मुझमें तेरा पीर।
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान,
अल्ला तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
अनचाहे बच्चे के रूप में दिल्ली में जन्म लिया। फिर ग्वालियर-भोपाल में बचपन, जवानी बीती। दिल्ली होते हुए मुंबई के सफर ने जो उन्हें सिखाया-बताया, उसे आज भी उनके चाहने वाले पढ़ते हैं। सच तो यह है कि शायर होना आसान है, निदा फाजली होना बहुत मुश्किल। आज देश के हालात पर वे क्या कहते, यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तो मैं कह ही सकता हूं जो वे कहते, वह टोपियों और दाढ़ियों को समान रूप से बुरा लगता था। कौन कहता है कि वे आज नहीं हैं, उनकी कब्र में तो एक शरीर सोया हुआ है। वे जिंदा हैं अपने करोड़ों चाहने वालों के जेहन में। उनके लिखे लफ्जों में। निदा साहब को सलाम, उनकी स्मृतियों को प्रणाम।