नारद एक ऐसे पात्र हैं जो भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास के हर काल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सतयुग में नारद राजा हरिश्चन्द्र को आदर्श राजधर्म का मार्ग दिखाते हैं तो त्रेता में वे राम व रावण के माध्यम से दैत्यों (वर्तमान के आतंकी) के समूल संहार के घटनाक्रम को दिशा देते हैं। द्वापरयुग में तो नारद लगभग हर बड़ीं घटना-दुर्घटना के सक्रिय सलाहकार के रूप में विद्यमान रहते हैं। भारतीय जनमानस का अत्यन्त दुखद दुर्भाग्य है कि पिछले दो सौ वर्षों में नारद जैसे आदर्श महापुरुष की छवि को विकृत कर दिया गया। दोष हमारा अपना है मुग़लों या अंग्रेज़ों को इस विकृति का ज़िम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता।
नारद के विभिन्न रूपों का जब गहराई से समझने का प्रयास करते हैं तो स्पष्ट होता है कि उनको हास्यास्पद, जोकर और कलह करवाने में निपुण के रूप में प्रस्तुत करना न केवल बौद्धिक दिवालिएपन का परिचायक है, न केवल सामाजिक अपराध है, परन्तु यह घोर पाप भी है। नारद को केवल खबरची के रूप में समाज के सामने रखना भी उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के साथ घोर अन्याय है। सर्वाधिक पढ़े जाने वाले हिन्दी के समाचार पत्र ने ‘नारद जी खबर लाएँ है’ नामक स्तम्भ अनेक वर्ष चलाया और जनमानस में नारद की छवि गुप्त सूचनाओं के माध्यम से राजनीतिक उथल -पुथल के संवाहक के रूप में बना दी। अब उचित समय और अवसर है जब हम भारतीय प्राचीन इतिहास को खंगोल कर वास्तविक नारद को समझें और समझाएँ।
नारद को प्राचीन भारत के हर काल में श्रेष्ठतम ऋषि के रूप में सम्मानित किया है। भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि विभिन्न व्यक्तियों और वनस्पतियों में सर्वश्रेष्ठ कौन है। समझाने के लिए वह इस शिक्षा को अपने से जोड़ते हैं। दसवाँ अध्याय के 24-26वें श्लोकों में कृष्ण कहते हैं कि बृक्षों में मैं बरगद का पेड़ हूँ, अर्थात् पेड़ों की श्रेणी में सर्वोपरी बरगद का वृक्ष है। अचल में कृष्ण हिमालय को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और वे कहते हैं ‘ऋषियों में मैं नारद हूँ’ अर्थात् कृष्ण के मन में नारद का सम्मान सबसे अधिक है। कृष्ण को भगवान का ही अवतार माना जाता है या फिर कम से कम एक अद्वितीय महापुरुष का स्थान उनको प्राप्त है ही। जिस को लीलाओं के पुरुषोत्तम कृष्ण ने सम्मान दिया हो ऐसे पात्र को कलह करवाने वाला और हास्य का पात्र प्रस्तुत करना किसी ऐसे षड्यन्त्र की ओर ही इंगित करता है जिसमें भारतीयों के गौरव बिन्दुओं को ध्वस्त करने का प्रयास है।
भारतीय समाज में नारद की कैसी छवि थी वह महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को बताया है। युधिष्ठिर शरशैय्या पर लेटे भीष्म से पूछते हैं कि ऐसा कौन है जो सबको प्रिय है, सबके ह्रदय में प्रसन्नता का संचार करता है, कौन सर्वगुणसमपन्न है और किसको सब उपलब्धियाँ प्राप्त हैं? भीष्म कृष्ण और राजा उग्रसेन के संवाद का संदर्भ देते हैं जिसमें उग्रसेन ने कृष्ण से पूछा था कि सब लोग नारद की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं। कृष्ण ने जो उग्रसेन को बताया वही भीष्म ने युधिष्ठिर को कहा। लम्बा उतर था, एक भाग उद्धृत है: ‘ नारद का शास्त्रों का ज्ञान व उसका अचार व्यवहार उच्च श्रेणी का है तो भी उसे न तो घमण्ड है न ही वह डींग हांकता है। क्रोध, धृष्ट व्यवहार, भय और प्रमाद आदि से वह मुक्त है। नारद पूज्य है क्योंकि वह अपने वचन से मुकरता नहीं है और वह वासनाओं व लोभ से पूर्णता मुक्त है। सब उसका सम्मान करते हैं क्योंकि नारद अध्यात्म का विद्वान है, क्षमावान है, सहज है और मधुरभाषी है। …..’। यही नारद का वास्तविक परिचय है और ऐसी ही छवि उनकी वर्तमान में बनानी है।
पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता के क्षेत्र में नारद की वास्तविकता की व्याख्या बड़े स्तर पर हुई है। जनसंवाद के आदर्श पुरुष के रूप में नारद की पहचान वर्तमान के मीडिया जगत में क्रमश: बनती जा रही है। उनकी विदूषक और ठिठोलिया की भूमिका लगभग मिटा दी है।। नारद का नया रूप एक सर्वश्रेष्ठ सूचनाओं के संवाहक का उभरा है। समाचार जगत में कार्यरत प्रोफेशनलों को सत्यनिष्ठता, निषपक्षता व वस्तुनिष्ठता का पाठ नारद के जीवन से सहज प्राप्त हो रहा है। एक अन्य पाठ नारद से लिया गया है वह समाजहित व राष्ट्रहित से सम्बंधित है।
भारत में पत्रकारिता की परम्पराएँ व सिद्धांत पश्चिम से, पहले इंग्लैंड व बाद में अमेरिका से, अपनाई गई हैं। सत्यनिष्ठता, निषपक्षता व वस्तुनिष्ठता पर तो आग्रह रहता ही परन्तु भारतीय मूल्यों के अनुसार समग्र रूप से समाज हित के सिद्धांतों पर पश्चिम का आग्रह नहीं रहता। पश्चिम के मीडिया का ध्येय रहता है ‘खबर किसी भी क़ीमत पर’। पश्चिम के अचार- व्यवहार से प्रभावित हमारा पत्रकार तो यह मानता है कि उसका कार्य समाचार बनाना व प्रस्तुत करना है, उसका समाज पर क्या प्रभाव होता है, उससे उसका कोई लेना-देना नहीं है। पश्चिम का पूरा समाज वर्तमान में मीडिया में राष्ट्रहित और समाज हित की अनिवार्यत की माँग कर रहा है।यूरोप व अमेरिका का लगभग सम्पूर्ण मीडिया मुस्लिम देशों के साथ संघर्ष को अपने देश के हित में ही झुकाकर मीडिया में रखता रखता है। नारद के जीवन भी यही सीखने की आवश्यकता है केवल सत्य ही प्रस्तुत करना है, असत्य से बचना है परन्तु जो सत्य समाज में बिखराव या निराशा लाने बाला हो उसको उजागर नहीं करना है।
यहाँ विषय आता है मीडिया कर्मियों में भरपूर मात्रा में विवेक होने की आवश्यकता। ऐसी समझदारी और ऐसा समर्पण जो आज की संवाद की व्यवस्थाओं को राष्ट्र के पुनरुत्थान के हेतु प्रयोग करे नारद से सहज सीखी जा सकती है। नारद केवल मात्र संवाद के वाहक ही नहीं थे वे सम्मानित आचार्य, गुरू और परामर्शदाता भी थे। विभिन्न साधनों से प्राप्त जानकारी को केवल चटपटा बनाकर बिकने योग्य बनाना यह पत्रकारिता का एक स्तर का हुनर हो सकता है परन्तु इससे भी आगे प्रेषित जानकारी के दुष्प्रभाव का भी आँकलन करने की निपुणता समाचार जगत व उसमें कार्यरत परोफेसनलों को होनी ही चाहिए। इसका बहुत सटीक उदाहरण उस समय का है जब पाण्डवों ने खाण्डव वन में सुव्यवस्थित राज्य स्थापित कर लिया और नारद युधिष्ठिर के दरबार में अकस्मात् पहुँचे। स्वागत की औपचारिकताओं के पश्चात नारद महाराज युधिष्ठिर से राज्य के विषय में प्रश्न पर प्रश्न पूछते हैं। न तो नारद उतर की अपेक्षा करते हैं और न ही राजा उतर देते हैं। परन्तु लगभग 150 प्रश्नों में नारद ने सुशासन, गुडगवर्नैंस के सभी सूत्र युधिष्ठिर को दे दिए। युधिष्ठिर तो स्वयं ज्ञानेश्वर व धर्म आधारित राज्य चलाने के मर्मज्ञ थे परन्तु यह संदर्भ इसलिए महत्वपूर्ण हैं समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का दायित्व केवल प्रशासन का अनुसरण करना ही नहीं है, समय समय पर नीतियों और क्रियान्वयन का आँकलन भी होना चाहिए। मीडियाकर्मी बुद्धिजीवी वर्ग में हैं परन्तु शर्त यह है कि वह बुद्धिमान, अध्येता व विवेकशील हों।
नारद से एक और पाठ लेना चाहिए। सर्वविदित है कि नारद सभी लोकों में किसी भी दरबार, घर और शयनकक्ष में प्रवेश पाते थे। उनके पास कोई नारायण का दिया हुआ पहचान पत्र या प्रवेश पत्र नहीं था। वे स्वयं में एक सर्व स्वीकार्य ‘बरैंड’ थे। वर्षों के सराहनीय कार्य के बाद ही तो यह छवि बन पाई होगी। आज के आचार्यों व मीडियाकर्मियों के लिए यह मार्गदर्शिका है, चुनौती है।
एक और मिथक को स्पष्ट करना आवश्यक है। नारद एक व्यक्ति नहीं हो सकते। प्राचीन काल में मनुष्य की आयु एक हज़ार वर्ष भी मान लें तो भी एक ही नारद तीनों युगों में नहीं हो सकते। विश्वसनीय अनुमान यह लगाया जा सकता है कि हर काल में समाज में एक ऐसा व्यक्ति होता था जो शास्त्रों का पूर्ण ज्ञाता, भूत-वर्तमान और भविष्य का निपुण विश्लेषक, त्यागी-तपस्वी, प्रवास-प्रिय, संगीतज्ञ व मधुरभाषी, पूर्ण रूप से स्वार्थहीन व परमात्मा का भक्त- इन सभी योग्यताओं व गुणों से सम्पन्न हो वह नारद का कार्य करता था। हालाँकि वर्तमान में सामाजिक संवाद के लिए नारद जैसे कार्य के लिए व्यवस्था नहीं है फिर भी रिज़र्व बैंक के गवर्नर, नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, मुख्य सूचना आयुक्त व मुख्य चुनाव आयुक्त अपने-अपने क्षेत्र में मिलता जुलता कार्य ही करते हैं। पैस परिषद के अध्यक्ष का कार्य कुछ- कुछ ऐसा हो सकता हा पर नहीं है।
आज न केवल भारत में अपितु पूरे विश्व में मीडिया की रचना, कार्य और परिणामों के विषय में चिन्ता है और विकल्पों की खोज है। दर्शक-पाठक-श्रोता, प्रशासन, मीडिया के मालिक, मीडिया कर्मी सभी मीडिया की वर्तमान स्थिति से असन्तुष्ट हैं। एक अवसर है कि भारतीय ज्ञान व संवाद परम्पराओं और नारद के मूल्यों और कार्यशैली पर आधारित वर्तमान में उपलब्ध यन्त्रों के प्रयोग से ऐसी मीडिया रचना बनाएँ जो मनुष्य समाज को समग्र संवाद के माध्यम से एकात्म बनाएँ और मानव की क्रमिक विकास को दिशा व गति देकर नर से नारायण बनने का मार्ग प्रशस्त करें। नारद भी तो नारायण-नारायण का मन्त्र ही मानवता को दे गए हैं।
(लेखक, संवाद विज्ञान के प्राध्यापक व हरियाणा राज्य उच्च शिक्षा परिषद के अध्यक्ष हैं।)