गुरु—शिष्य का रिश्ता बड़ा पवित्र और अनूठा होता है। शिष्य जहां गुरु का दर्शन और आशीर्वाद पाकर कृतार्थ होता है, वहीं शिष्य के मर्यादित व्यवहार और स्नेह के वशीभूत गुरु भी माने जाते हैं। यही वजह है कि शिष्य अगर दुखी हो तो गुरु भी अपने कष्टों की भी परवाह नहीं करते हैं और शिष्य को दर्शन लाभ कराने के लिए कुछ भी कर गुजर जाते हैं। ऐसा ही कुछ अनूठा उस वक्त देखने को मिला, जब जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने नवीन इतिहास का सृजन करते हुए तेरापंथ की आचार्य परम्परा में एक दिन में सर्वाधिक 47 किलोमीटर का उग्र विहार किया। शाम लगभग छह बजे आचार्यश्री महाश्रमणजी दिल्ली के श्रीबालाजी एक्शन अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ ले रहीं शासनमाता साध्वीप्रमुखाजी को दर्शन दिए। खास बात यह कि आचार्यश्री महाश्रमणजी जी के दिल्ली आगमन के दौरान हरियाणा के झज्जर के पास स्व. मूलचंद मालू के सुपुत्र एवं कुबेर ग्रुप के निदेशक विकास मालू अपने परिवार के सदस्यों के साथ आचार्यश्री का दर्शन—आशीर्वाद पाकर अपने जीवन को धन्य किया।
अपने गुरु के दर्शन कर अस्पताल में उपचाराधीन साध्वीप्रमुखाजी कनकप्रभाजी जहां पुलकित नजर आ रही थीं, तो युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी भी बेहद प्रसन्न थे। दरअसल, शासनमाता साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा जी की स्वास्थ्य अनुकूलता न होने पर एक सरलहृदयी बालक की तरह शासनमाता के आध्यात्मिक मनोबल वृद्धि के लिए पूर्व नियोजित सभी कार्यक्रमों में परिवर्तन करके लगातार सात दिन तक उग्रविहारी बनकर रोज लंबा विहार करके दिल्ली पहुंचना और अस्पताल में फर्श पर बैठकर शासनमाता की वंदना करना युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की सरलता और विनम्रता का अतुल्य और बेजोड़ उदाहरण है। इस प्रकार समता के साधक, अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शासनमाता को दर्शन देने के लिए तेरापंथ धर्मसंघ में नया स्वर्णिम अध्याय लिख दिया।