“4जी में रिलायंस जियो ने नही लगाया कोई चीनी इक्विपमेंट” मुकेश अंबानी ने जब यह धोषणा कि तब शायद मुकेश अंबानी को भी इसका गुमान नही होगा कि चीनी सरकार और उसके भारत में मौजूद चीनी एजेंट यानी कम्युनिस्ट पार्टियां और उनके झंडाबरदार (अरबन नक्सल) इसे आसानी से हजम नही कर पाएंगे।
सीधे तौर पर जियो और रिलायंस पर हमला करना शायद आत्महत्या होती क्योंकि चीनी सरहद पर भारतीय सैनिक शाहदत दे रहे थे और रिलायंस और जियो चीनियों और चीनी समान के बहिष्कार का चेहरा बनी हुई थी। देश सुरक्षा की खातिर रिलायंस जियो ने उन सीमाई इलाकों में भी मोबाइल टॉवर लगाए, जहां कभी मोबाइल की घंटी नही बजी थी।
सैकड़ों चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाकर केंद्र सरकार ने भी चीन के खिलाफ डिजिटल युद्ध की शुरूआत कर दी है। चीन की वो कमजोर नस दबाई जा रही है जहां उसे सबसे ज्यादा दर्द का अहसास हो। चीनी हुवावे कंपनी को 5जी से बाहर का रास्ता दिखाया दिया गया। 5जी टेक्नोलॉजी में भी स्वदेशी तकनीका का विकास करके रिलायंस जियो ने कम्युनिकेशन की दुनिया चीनियों को पछाड़ कर विरोध का नया रास्ता बनाया। सरकारी कंपनी BSNL के 4जी प्रोजेक्ट लॉन्च से भी उसे बाहर फेंक दिया गया। जाहिर है, चीनी सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी हुवावे के विरोध से चीन बिलबिला उठा है।
चीनी कसमसाहट से भारत में मौजूद चीनी एजेंट भी झटपटा रहे थे। किसान आंदोलन ने इन चीनी एजेंटों को जियो और रिलायंस पर ताबड़तोड़ हमले करने का मौका दिया है। बंदूक भोले किसानों के कंधों पर रखी जा रही है। उन्हें अंबानी, अडानी का डर दिखा कर बरगलाया जा रहा है। रोजी रोटी छिन जाने की त्रासद तस्वीर दिखाई जा रही है। पर असली एजेंडा कुछ और ही है।
किसान आंदोलन पर काबिज इन चीनी एजेंटों के मंसूबे बिलकुल साफ है, हुवावे की दुश्मन और भारत में डिजिटल क्रांति की सूत्रधार रिलायंस जियो और देश के औद्योगिक जगत की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस को नेस्तनाबूत करना। रिलायंस की बर्बादी के सपने देखने वाले यह चीनी एजेंट भारत के औद्योगिक उत्थान को ज़मीदोज करना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि भारत भी पाकिस्तान की तरह चीनी उपनिवेश बन जाए। जहां तकनीक भी चीनी हो, सामान भी चीनी हो और राजनीतिक एजेंडा भी चीनी यानी कम्युनिस्ट ही हो।
किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले लोग कौन है, वे कहां से आए हैं और उनका कोई राजनीतिक बैकग्राउंड है भी कि नही। थोड़ी छानबीन करने पर इस सवाल का जवाब मिल जाएगा। पूरा का पूरा आंदोलन ही कम्युनिस्टों ने हाईजैक कर लिया है। कॉमरेड हनान मोलाह किसान आंदोलन का चेहरा बन चुके हैं। ऑल इंडिया किसान सभा पंजाब, जम्हूरी किसान सभा, पंजाब किसान यूनियन जैसे बहुत से किसान संगठनों के नेता सीधे तौर पर कम्युनिस्ट इको- सिस्टम से जुड़े हैं। भारत को कमजोर करने का एजेंडा चलाया जा रहा है। अब किसान आंदोलन में उमर खालिद, शरजील इमाम, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, वरवरा राव समेत कई अन्य अरबन नक्सलियों की रिहाई के पोस्टर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं।
पंजाब को छोड़ कर जब किसान आंदोलन को देश भर में कहीं सपोर्ट नही मिला तो इससे तिलमिलाए कम्युनिस्टों ने खालिस्तानियों से हाथ मिलाने में भी गुरेज नही किया। “इंदिरा को ठोक दिया अब मोदी की बारी है” खालिस्तानियों का यह वक्तव्य सोचा समझा है। इसे हल्के में बिलकुल नही लेना चाहिए। कांग्रेस को भी अब समझ लेना चाहिए कि जिन कम्युनिस्टों से वह पींगे बढ़ा रही है। उन कम्युनिस्टों का देश की पीठ में छुरा घोंपने का पुराना इतिहास है। कांग्रेस को यह भी सुनिश्तिच करना चाहिए कि यह आंदोलन खालिस्तानियों के हाथों का खिलौना ना बन जाए। भले ही कांग्रेस का चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौता हो या भले ही मोदी विरोध एजेंडे में सबसे ऊपर हो, पर फिर भी कांग्रेस को देश हित में कुछ फैसले लेने ही होंगे।
सरकार की किसानों से कई राउंड की बातचीत हो चुकी है। सरकार ने झुक कर किसानों की बहुत से मांगें मान ली हैं और कई पर विचार के सकेंत दिए हैं। पर फिर भी किसान आंदोलन पर डटे हैं। इस बीच खुफिया सूत्रों का मानना है कि अतिवादी संगठन आने वाले दिनों में किसानों को हिंसा, आगजनी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए उकसाने की योजना बना रहे हैं। सूत्रों ने यह भी जानकारी दी है कि किसान आंदोलन के नाम पर एंटी नेशनल एजेंडा को भी कुछ कम्युनिस्ट संगठन बड़े स्तर पर इस्तेमाल करने में जुटे हुए हैं। साफ है कि आंदोलन का समाप्त होना कुछ लोगों को रास नही आएगा, क्योंकि यह आंदोलन किसानों की दशा सुधारने को है ही नही, यह तो विशुद्ध रूप से देश को कमजोर करने का है।
किसान आंदोलन की शुरूआत पंजाब से हुई है इसका अंत भी पंजाब से ही होना चाहिए। आंदोलन के नाम पर रिलायंस जैसी भारतीय कंपनी के स्टोर और पैट्रोल पंप बंद करवाना, जियो के सिम के बाहिष्कार जैसी चीन को रास आने वाली बेसिर-पैर की मांगों का खत्मा भी पंजाब को ही करना होगा। उसे समझना होगा कि इन मांगों के पीछे दरअसल अंतरराष्ट्रीय खेल चल रहा है। वह खेल जिसमें एकतरफ चीन और उसके पैदे हैं तो दूसरी तरफ पूरा विश्व। हुवावे जैसी चीनी कंपनियां दुनिया में तभी सफल हो पाएंगी जब रिलायंस जियो जैसी विशुद्ध भारतीय कंपनियां फेल हो जाएं। भारत देश अगर आत्मनिर्भरता कि राह पर चल पड़ा तो चीन को और उसके भारतीय एजेंटों को कौन पूछेगा। तो आंदोलन करिए पर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मत मारिए।