मधुबाला नहीं ,नर्गिस थीं… मुग़ल-ए-आज़म की अनारकली

अतुल गंगवार

फ्लैशबैक में आज हम बात करते है, के. आसिफ के निर्देशन में बनी फिल्म “मुग़ल-ए-आज़म” की। आपको ये जानकार शायद हैरत हो, इस फिल्म का निर्माण देश की आज़ादी से पहले शुरू हुआ था। १९४७ में जब देश का बटवारा हुआ तो इस फिल्म को भी उसकी कीमत चुकानी पड़ी थी। आपको ये जानकर भी हैरानी होगी कि दिलीप कुमार को पहले के. आसिफ ने सलीम की भूमिका के लिए रिजेक्ट कर दिया था। तो कौन निभा रहे थे सलीम की भूमिका और कैसे देश के विभाजन का असर इस फिल्म पर पड़ा ये जाने के लिए पढ़िए फ्लैशबैक।

के. आसिफ के इस ड्रीम प्रोजेक्ट की शुरुआत वर्ष १९४४-४५ के दरमियान हुई थी। के. आसिफ ने १९२२ में लिखे इम्तियाज अली ताज के नाटक, “अनारकली” पर फिल्म बनाने का फैसला किया. मुगल शहजादे सलीम और शहंशाह अकबर के दरबार की नर्तकी अनारकली बीच प्रेम की कहानी पर इससे पहले १९२८ में “लव ऑफ अ मुग़ल प्रिंस” के नाम से एक मूक फिल्म बन चुकी थी. इसी साल आरएस चौधरी के निर्देशन में इसी कहानी पर “अनारकली” फिल्म आई थी जिसमें मुख्य भूमिका प्रसिद्ध अभिनेत्री सुलोचना ने निभाई थी. इस फिल्म को दोबारा १९३५ में भी बनाया गया था. १९५३ में नन्दलाल जसवंत लाल ने बीना रॉय, प्रदीप कुमार के साथ “अनारकली “फिल्म को बनाया था. हालाँकि इस फिल्म की कहानी का क्रेडिट इम्तियाज़ अली ताज को ना देकर नासिर हुसैन को दिया गया था.  इस तरह से देखा जाये तो के. आसिफ की मुग़ले-आज़म से पहले तीन बार ये कहानी फ़िल्मी परदे पर आ चुकी थी.

तो हम बात कर रहे हैं,के. आसिफ की फिल्म “मुग़ल-ए-आज़म” की जिसकी शुरुआत १९४४-४५ में हुई थी. फिल्म इंडिया के कवर पर “मुगल-ए-आज़म” का पोस्टर दिखाई दिया। फिल्म में वीणा- बहार (ताज के नाटक में दिलाराम से नाम बदल दिया गया था), नर्गिस-अनारकली और चन्द्रमोहन अकबर का किरदार निभाना रहे थे। फिल्म के निर्माता थे हाकिम. फिल्म की शूटिंग मुंबई के मलाड उपनगर में बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में होनी थी।

सलीम की भूमिका निभाने के लिए बॉम्बे टॉकीज के प्रोडक्शन कंट्रोलर हितेन चौधरी ने सुझाव दिया कि के. आसिफ और हाकिम एक युवा अभिनेता युसूफ खान जिनका स्क्रीन नाम दिलीप कुमार है को सलीम की भूमिका के लिए ले सकते हैं. के. आसिफ को दिलीप कुमार पसंद नहीं आये और सप्रू को सलीम के रोल के लिए चुन लिया गया.

दुर्गा खोटे को अकबर की राजपूत पत्नी और सलीम की माँ, जोधा के रूप में साइन किया गया। अभिनेता हिमालयवाला, जिन्होंने महबूब की हुमायूँ (१९४५) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, को सलीम के राजपूत मित्र दुर्जन सिंह की भूमिका के लिए चुना गया था।

फिल्म के संगीतकार थे अनिल बिस्वास और कमाल अमरोही, अमन, वजाहत मिर्जा और एहसान रिज़वी को लेखकों के रूप में साइन किया गया था। फिल्म की शूटिंग जोर शोर से चल रही थी, तभी देश में विभाजन की सरगर्मियां शुरू हो गयी.

उपमहाद्वीप के बंटवारे में हाकिम और हिमालयवाला ने पश्चिमी पाकिस्तान को अपना घर बनाने का फैसला किया। एक झटके में, आसिफ अपने फाइनेंसर और एक प्रमुख अभिनेता से दूर हो गए। अपने स्टूडियो को बेचने और पाकिस्तान जाने से पहले, हकीम ने आसिफ को सुझाव दिया कि यदि कोई फिल्म के लिए विशाल धन दे सकता है तो वह प्रतिष्ठित बिल्डर शापूरजी पालोनजी हैं और वास्तव में, यह पालोनजी ही थे जिन्होंने आसिफ को उनके सपने को साकार करने में मदद की.

लेकिन आसिफ का संकट खत्म नहीं हुआ 2 अप्रैल, 1949 को अकबर का किरदार निभा रहे चन्द्रमोहन का निधन हो गया.चर्चित पत्रिका फिल्म इंडिया ने अभिनेता के निधन पर लिखा, “इस महान अभिनेता को फिर कभी नहीं बदला जाएगा। क्‍योंकि मेमने कभी मरे हुए सिंह के कद तक नहीं पहुंच सकते।”

मगर आसिफ ने हार नहीं मानी. एक बार फिर से उन्होंने शुरुआत की. इस बार अनारकली के रोल में मधुबाला, सलीम के रोल में दिलीप कुमार, दुर्जन के रोल में अजीत, जोधा बाई के रोल में दुर्गा खोटे और अकबर के रोल में पृथ्वीराज कपूर को लेकर मुग़ल-ए-आज़म को परदे पर साकार करने का काम शुरू किया. फिल्म का संगीत देने के लिए इस बार नौशाद साहेब को चुना गया. जब ये फिल्म बन रही थी तो इसी कहानी पर १९५३ में नन्दलाल जसवंत लाल ने प्रदीप कुमार और बीना रॉय के साथ अनारकली बना कर प्रदर्शित कर दी जो बॉक्स ऑफिस पर बेहद कामयाब हुई. लेकिन आसिफ का मनोबल नहीं टूटा. वो मुग़ल ए आज़म के निर्माण में लगे रहे. लगभग ९ साल के अथक परिश्रम और १ करोड़ से अधिक लागत से बनी इस फिल्म का एक गीत और कुछ दृश्य कलर में फिल्माएं गए थे. रंगीन दृश्यों के प्रभाव को देखते हुए के आसिफ पूरी फिल्म को रंगीन बनाना चाहते थे, लेकिन निर्माताओं के दबाव में उन्हें फिल्म को वैसे ही प्रदर्शित करना पड़ा.  ५अगस्त, १९६० को ये फिल्म प्रदर्शित हुई. कहा जाता है की उस समय इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ५ करोड़ से अधिक का कारोबार किया था.

भले ही वे सिल्वर स्क्रीन पर सप्रू और नरगिस, सलीम-अनारकली की प्रेम कहानी को अमर नहीं कर सके,उन्होंने रोमियो एंड जूलियट (1947) में में मुख्य भूमिका निभाई।

आज इम्तियाज़ अली ताज के नाटक पर आधारित अन्य फिल्में इतिहास बन गयीं हैं, लेकिन मुग़ल-ए-आज़म का जलवा अभी भी बरक़रार है. अपने निर्माण के 44 वर्षों के बाद के आसिफ के अधूरे ख़वाब को पूरा करने के लिए मुग़ल-ए-आज़म को पूरी तरह से तकनीक की मदद से रंगीन बनाया गया और २००४ में प्रदर्शित किया गया.

मुग़ल-ए-आज़म भारतीय सिनेमा का वो नगीना है जिसपर वो हमेशा गर्व कर सकता है.

 

film poster courtesy Internet

Old Poster courtesy Film India

 

 

 

 

Advertise with us