आज पत्रकारिता दिवस है । आज भारतीय पंरपरा में पत्रकारिता की बात । हिंदी के अखबार भले ही 19 वीं सदी से प्रकाशित होने आरंभ हुए हिंदी हों हमारी संस्कृति में तो संवाद , प्रचार प्रसार की परंपरा उतनी ही पुरानी है जितनी हमारी वैदिक संस्कृति । सही अर्थों में संवाददाता होना किस तरह से एथिक्स ऑफ मीडिया का मार्ग प्रशस्त करेगा और कैसे निष्पक्ष निर्भिक पत्रकारिता स्थैपित होगी वरिष्ठ पत्रकार सर्जना शर्मा बता रही है हमारे महाकाव्यों की संवाद शैली की स्वस्थ पंरपरा के बारे में ।
मैं आज जरा वर्तमान से हट कर अपनी प्राचीन सूचना प्रणाली और संवाद शैली की बात करूंगी । सूचनाओं का सही और निष्पक्ष प्रचार और प्रसार भारतीय समाज का वैदिक काल से नियम रहा है । महर्षि नारद जी को ब्रह्मांड का पहला पत्रकार माना जाता है । और नारद जी ऑन द स्पॉट रिपोर्टिंग में बहुत विश्वास रखते थे कानों सुनी नहीं आंखों देखी । उनका सोर्स ऑफ न्यूज बहुत ओथेंटिक होता था । और उन्हें अपनी सूचना का महत्व भी पता था । सूचना कहां कब और किसको देनी है ये वो अच्छे से जानते थे उनकी विशेषता ये थी कि वो किसी भी सूचना में अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ते थे केवल घटना को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देते थे । अगर हम आज की भाषा में कहें तो ऑनली न्यूज़ नो व्यूज़ । जब खबर में रिपोर्टर के व्यूज़ आ जाते हैं तो वो खबर नहीं रहती । उसमें रिपोर्टर की अपनी निजी सोच या जिन तत्वों से वो प्रभावित है उसका मिश्रण हो जाता है और यही मिश्रण मीडिया की निष्पक्ष साख के लिए घातक है । दुर्भाग्य की बात है कि आज मीडिया न्यूज से ज्यादा व्यूज़ दिखा रहा है । संवाददाता का काम है केवल घटनाओं को ज्यों का ज्यों प्रस्तुत करना । और यहां में संवाददाता का अर्थ भारतीय परिपेक्ष्य में स्पष्ट करना चाहूंगी । रिपोर्टर और कोरोसपोंडेंट विदेशी भाषा के शब्द हैं । संवाददाता हमारी अपनी भारतीय भाषा का शब्द है । संवाद का अर्थ है दूसरे व्यकित से बात करना उसकी राय भी जानना और उसे अपने साथ इनवॉल्व करना । संवाददाता का अर्थ रिपोर्टर की तुलना में कही ज्यादा सार्थक और व्यापक है । संवाद ही समाज का सबसे बड़ा माध्यम है . एकालाप हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है । आप अपने महाकाव्य श्रीमद्भगवद् गीता , श्री रामचरित मानस , पुराणों को यदि देखें तो संवाद का महत्व आपको पता चलेगा । श्री मदभगवदगीता जो कि भारत में ही नहीं पूरे विश्व में सबसे प्रसिद्ध लोक प्रिय ग्रंथ हैं जो काल समय देश धर्म की सीमाओं से परे है । जो गुरू है मार्ग दर्शक है । साढ़े पांच हज़ार साल बीत जाने के बाद आज भी प्रांसांगिक है । सभी 18 अध्याय संवाद पर आधारित है । भगवान कृष्ण औऱ उनके सखा अर्जुन के बीच संवाद हैं । भगवान कृष्ण को अपने भगवान त्रिकालदर्शी होने का अभिमान नहीं है । वे चाहते तो कहते अर्जुन सुनों जो मैं कहता हूं उसे चुपचाप सुनों लेकिन भगवान अर्जुन को पूरा अवसर देते हैं उसकी हर शंका हर प्रश्न का उत्तर देते हैं । अपने विचार अर्जुन पर थोप नहीं रहे हैं उसको अपने उत्तरों से आश्वस्त करते हैं शकाओं का निराकरण करते हैं । श्री मद्भगवद्गीता ही क्यों पूरा महाभारत संवाद पर आधारित है । महर्षि वेद व्यास जब महाभारत की रचना कर रहे थे तो वे चाहते तो अपनी विद्वता और अपना ज्ञान दिखाने के लिए लिए फर्सट पर्सन एकांऊट भी लिख सकते थे लेकिन उन्होनें इसे संवाद के रूप में ही लिखा है । लेकिन आप जगह जगह देखेंगें लिखा है संजय उवाच ,धृतराष्ट्र उवाच , युधिष्ठर उवाच , केशव उवाच , अर्जुव उवाच , वैशंपायन उवाच । यानि वेदव्यास जी ने किसी के भी विचार का दायित्व स्वयं नहीं लिया । यही एक अच्छे संववाददाता की स्टोरी कहती है । एक अच्छी न्यूज स्टोरी में सभी का पक्ष उसके नाम से रखा जाता है । संवाददाता कहीं किसी का पक्षकार नहीं है न ही अपनी राय रखता है ।
संजय ने अपनी भूमिका महाभारत में एक अच्छे निष्पक्ष निर्भिक संवाददाता की निभायी । संजय ने इंद्रप्रस्थ में बैठ कर दृष्टिहीन महाराज धृतराष्ट्र और गांधारी को आंखों देखा हाल सुनाया । यहां आंखों देखा शब्द बहुत महत्वपूर्ण है । यानि संजय युद्ध के मैदान में जो देख रहा है उसे ज्यों का त्यों बता रहा है । अपनी राय संजय ने कहीं नहीं रखी । कहीं संजय ने ये नहीं कहा कि देखो महाराज पांडव कितने खराब हैं और कौरव कितने अच्छे । सौ पुत्रों के पिता बलशाली महाराज जो कि स्वयं नहीं देख सकता उनको युद्ध भूमि का हाल निष्पक्ष हो कर सुनाना आज के युग में शायद ही किसा संवाददाता के लिए संभव हो अब तो गोदी मीडिया मोदी मीडिया जैसे अलंकार भी आ गए हैं । संजय ने एक पल भी सत्ता और शक्ति का भय नहीं माना । ये नहीं सोचा कि यदि किसी एक जानकारी के अप्रिय लगने पर उसे महाराजा ने दंड दिया तो क्या होगा । एक बार भी धृतराष्ट्र को कुछ झूठ नहीं बताया । उनको खुश करने का प्रयास भी नहीं किया ।
महाभारत में भी धर्म और अधर्म की स्थितियां आयीं । जिसे हम एथिकल और एनएथिकल आज कहते हैं वो सतयुग द्वापर , त्रेता युग में भी धर्म संकट था । जिस समाज की परंपरा सत्यवद धर्म चर की रही हो वहां अगर छल बल करना हो तो दस बार सोचना पड़ता है । पश्चिम की अवधारणा है एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वॉर । लेकिन हम तो कहते हैं सत्यं प्रियं ब्रूयात । हम बात कर रहे थे कि जब धर्म संकट हो तो क्या किया जाए । पत्रकारों के लिए ऐसी स्तिथि का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है भगवान श्रीकृष्ण जो स्वयं विण्णु जी का अवतार थे । वो झूठ बोलने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को चुनते हैं जिसका नाम ही धर्मराज है यानी पांडवों में सबसे बड़े धर्मराज युधिष्ठर इसमें भी एक संदेश छुपा है । जिस व्यक्ति की समाज में साख हो जिसके व्यक्तित्व और आचरण पर किसी को रत्ती भर भी संदेह न हो उसको चुनना । अगर आज हम अपने मीडिया की तुलना धर्मराज से करें तो क्या हमारे पास आज एक भी ऐसा मीडिया संस्थान या न्यूज़ चैनल है जिसकी छवि सत्य वक्ता की धर्म के आचरण की हो यहां धर्म से मेरा अर्थ एथिक्स ऑफ मीडिया से है । अब भगवान कृष्ण को गुरू द्रोणाचार्य का बल शक्तियां सब पता थीं लेकिन उनको हतोत्साहित कैसे जाए, उनके पराक्रम को कैसे कम किया जाए । कहते हैं कि इंसान सबसे ज्यादा कमज़ोर पड़ जाता है अपनी संतान के बारे में । संतान का मोह इतना होता है कि उसका एक छोटा सा दुख भी माता पिता की कंमर तोड़ देता है । कौरवों पांडवों के गुरू द्रोणाचार्य महाभारत के मैदान में दुर्योधन के साथ खड़े हुए । उन के अति बलशाली और महान योद्दा पुत्र का नाम अश्वतथामा था और युदध के मैदान में एक हाथी का नाम भी अश्वत्थामा था । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा युधिष्ठर तुम घोषणा करो अश्वत्थामा हतो । लेकिन युधिष्ठर जो धर्म राज थे उन्होनें यहां सरासर झूठ बोलने को पाप समझा वो अश्वत्तामा हतो कहने को तैयार तो हो गए लेकिन अंत में उन्होनें कहा नरो वा कुंजरो वा । मीडिया के लिए ये भी एक बहुत बंड़ा संदेश है भगवान भी झूठ बोलने को कहे तो अपनी बुद्धि का प्रयोग करो । युधिष्ठर ने कह तो दिया अश्वत्थामा हतो लेकिन साथ ही नरो वा कुंजरों वा कह कर अपनी स्थिति साफ कर ली । यही सीखना है आज मीडिया को भगवान की ओर से भी झूठ कहने का दबाव हो तो स्वयं पर दोष मत लो । लेकिन आज मीडिया तरह तरह के दबावों में काम कर रहा है । बाज़ार भी मीडिया को चलाता है । जो सरकार सबसे ज्यादा विज्ञापन दे उसके खिलाफ तो एक शब्द नहीं बोलना उसकी नाजायज़ बात पर भी देख कर अनदेखा कर देना । चाहे जनता को कितना भी नुकसान हो जाए मीडिया केवल अपना विज्ञापन रेवेन्यू देखता है । आज आप देखिए कि जिन पश्चिमी मीडिया संस्थानों की दुनिया भर में धाक और साख थी वो मिट्टी में मिलती नज़र आ रही है बीबीसी की पक्षपातपूर्ण और एकतरफा रिपोर्टिंग न्य़ूयार्क टाईम्स टाईम्स मैगज़ीन ने किस तरह से मीडिया एथिक्स को भारत की कोरोना आपदा के मामले में ताक पर रखा ये सब जानते हैं । पश्चिम का वो मीडिया जो नाईन इलेवन की एक तस्वीर नहीं दिखाता जो एक लाश नहीं दिखाता अस्पताल में उनके कैमरे नहीं जाते किसी मृतक के परिजन से बात नहीं करते रोते बिलखते नहीं दिखाते वो किस तरह से भारत की पुरानी तस्वीरें जलती चिताएं दिखा कर एथिक्स ऑफ मीडिया को तार तार कर रहे हैं ।
संवाददाता की जगह समाचारदाता शब्द भी प्रयोग किया जा सकता था ।लेकिन भारतीय परंपरा भारतीय संस्कृति के अनुसार सबसे अनूकूल शब्द है संवाददाता । अब देखिए ना गोस्वामी तुलसादीस जी ने क्या किया । उन्होनें एक अमर ग्रंथ श्री रामचरित मानस की रचना की जब तक धरती पर हिंदु धर्म है तब तक रामचरितमानस कालजयी ग्रंथ रहेगा । आज भी दुनिया की बेस्ट सेलर श्रीरामचरित मानस है । हर माह लाखों प्रतियां बिकती हैं । तुलसीदास जी चाहते तो वे भी सारा श्रेय स्वयं ले लेते और स्वयं ही भगवान राम की कथा लिख देते लेकिन भारतीय पंरपरा की सुंदरता देखिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने भगवान शिव और पार्वतीको अपना संवाददाता बनाया । तुलसीदास जी ने भगवान शिव को भी एकालाप नहीं करने दिया । भगवान शिव और पार्वती के बीच बहुत सुंदर संवाद होता है । और हम श्री रामचरितमानस का आनंद लेते हुए आगे बढ़ते रहते हैं । यहां भी न तो भगवान शिव और न ही पार्वती अपनी कोई टिप्पणी या राय रखते हैं । किसी के आचरण को सही या गलत नहीं ठहराते । कैकयी को कहीं स्वार्थी और निष्ठुर नहीं कहा । रावण को कहीं अपहरणकर्ता बहरुपिया कपटी नहीं कहा । पाठक और श्रोता स्वयं तय करें स्वयं अपनी राय बनाएं । लेकिन आज तो मीडिया ट्रायल इतना जबरदस्त है कि पुलिस और अदालत से पहले ही मीडिया तय कर लेता है बलात्कारी ,हत्यारा , नशेड़ी गंजेड़ी ।
सौ बात की एक बात है कि हम सही और सच्चे मायने में यदि संवाददाता बने रहेंगें तो एथिक्स ऑफ मीडिया स्वयं ही स्थापित हो जाएगी । लेकिन हमारी शिक्षा नीति पर पश्चिम का इतना ज्यादा प्रभाव है कि हम अपनी समृदध पंरपराओं के बारे में जानते ही नहीं । हमारे पास हर विधा का अपार समृद्ध खजाना है । लेकिन हम लॉर्ड मैकाले से प्रभावित है हम पश्चिम की चकाचौंध से प्रभावित हैं हमारी अपनी संवाद परंपरा में तो आकाशवाणी और दूरदर्शन दोनों रहे हैं । हम तो संवाद के बिना धर्म की बात भी नहीं करते बाकी तो छोड़ ही दिजिए । यहां तो शौनक आदि ऋषियों को सूत जी ही पूरी कहानी सुनाते हैं । सत्यनारायण की कथा तक संवाद शैली में है ।
यदि हमारा वित्त मंत्रालय हमारे महान कूटनीतिक राजनीतिकार और अर्थशास्त्री कौटिल्य की नीतियों का गहन अध्ययन कर अर्थनीतियां लागू करने वाला है तो हमारे पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस बारे में क्यों नहीं सोच सकते । क्षमा किजिएगा यदि मेरे विचारों से आप असहमत हों तो लेकिन मुझे लगा मैं आज ज़ड़ों की ओर लौटूं जब जड़ हरी भरी रहेगी तो शाखांए फूल पत्ते और फल तो निश्चित ही सुंदर स्वस्थ और हरे भरे होंगें । और पेड़ वही मज़बूत होगा जिसकी जड़े अपनी मिट्टी में होंगी । जितनी गहरी जड़े उतनी मज़बूती उतनी सघनता उतनी छाया । आइए अपनी जड़ों की ओर लौटें । हिंदी पत्रकारिता दिवस पर अपने महाकाव्यों , पुराणों धर्म ग्रंथों में छुपी संवाद की शैली को खोजें और उसके अनुसार पत्रकारिता करें यही हिंदी पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा योगदान होगा ।
पांचजन्य से साभार