अपनी आजादी को हम हरगिज भुला सकते नहीं…। गीत तो प्रतिवर्ष गुनगुनाते हैं परंतु बलिदान भूलते जा रहे हैं और स्वाभिमान शून्यता शनै शनै बढ़ रही है।
स्वाधीनता दिवस के अवसर पर सभी सरकारी कार्यालयों, शैक्षिक संस्थानों, व्यवसायिक संस्थानों, बाजारों में सार्वजनिक अवकाश रहता है। यह अवकाश क्यों रहता है ? क्या इस पर आज लोग विचार करते हैं? क्या राजपत्रित अवकाश का अर्थ; घूमना फिरना और मौज मस्ती का दिन है ? क्या सच में इसीलिए 15 अगस्त और 26 जनवरी को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया था?
हमारे देश ने पराधीनता का एक लंबा कालखंड झेला है। अतीत की भूलें, गलतियां भविष्य के लिए सीख होती हैं। पुराने भग्नावशेष क्रूर इतिहास, अत्याचार के चिह्न हैं। भारत माँ के वीर- वीरांगनाओं ने लगभग 1000 वर्ष तक विदेशी आक्रांताओं के आक्रमणों को वीरता पूर्वक चुनौती दी। अपनी संपूर्ण सामर्थ्य से प्रतिरोध किया और अपने रक्त से मातृभूमि को सिंचित किया। तीन करोड़ से अधिक वीरों ने इस मातृभूमि के लिए बलिदान दिए।
विदेशी आक्रांता चाहे अरबी बंजारे थे अथवा यूरोपीय गोरे, सभी ने भारत के धर्म परायण भोलेभाले नागरिकों का सर्व प्रकार से शोषण किया। सरल, निष्कपट जन समुदाय संग अमानवीय पशुवत व्यवहार,अत्याचार और बलात्कार किया। आज हमारे समाज में जो भी अवगुण दिखाई देते हैं, वे सभी इन आक्रमणकारियों द्वारा फैलाए गए प्रदूषण हैं। भ्रष्टाचार यदि अंग्रेजों की देन है तो धोखा, छल-कपट मुगलों की देन है। वर्तमान परिवेश में छोटे-छोटे बच्चों के प्रति हो रहे अमानवीय कृत्य और कुसंस्कार,भारतीय समाज में कहां से आए? यदि हम इतिहास को थोड़ा-सा ध्यान से पढ़ें और गंभीरता से विचार करें तो जान पाएंगे कि यह सब विदेशी आक्रांताओं और उनके सिपहसालारों का दिया हुआ है। अत्याचार, बलात्कार, शोषण और क्रूरता में न मुगल कम थे न अंग्रेज।
देव और दानवों का संघर्ष हर युग में रहा है। अंतर केवल इतना है कि वर्तमान कलयुग में दानवों को पहचानना मुश्किल हो रहा है। भेड़ की खाल में लोमड़ी, भेड़िए आज भी विविध रूपों में समाज के मध्य उपस्थित हैं। मध्यकाल में आक्रांता सीधे-सीधे हमला करते थे। आज ये फरेबी, दुराचारी, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी और अपराधी के रूप में समाज में ही मौजूद हैं। इसी प्रकार छल प्रपंच से प्रेम जाल में फंसा कर लव जिहाद से धर्म और विश्वास के टुकड़े-टुकड़े कर रहे हैं। कहीं प्रलोभन से मतांतरण कर राष्ट्रांतरण की गहरी साजिश का जाल बुन रहे हैं। भारत की भूमि में ही रहकर यही का अन्न-जल खाकर राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में ही लिप्त रहते हैं।
अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्रता एक समझौते के तहत दी थी। द्वितीय विश्व युद्ध जब चल रहा था तब अंग्रेज युद्ध में पिछड़ रहे थे। नियम के अनुसार भारत अंग्रेजों का उपनिवेश तो था परंतु भारत के सैनिक द्वितीय विश्व युद्ध में सम्मिलित नहीं थे क्योंकि भारत द्वितीय विश्व युद्ध में किसी के पक्ष में नहीं था। अंग्रेज सेना जब कमजोर पड़ने लगी तो उन्होंने भारत के सैनिकों से उनके पक्ष में युद्ध में भाग लेने के लिए कहा। जिसे सैनिकों ने ठुकरा दिया। अंग्रेज महात्मा गांधी के पास गए और निवेदन किया कि आप कहें कि भारत के सैनिक हमारी ओर से द्वितीय विश्व युद्ध में भाग ले। महात्मा गांधी ने कहा कि हमें इससे क्या लाभ आपकी लड़ाई है आप लोग लड़िए । तब महात्मा गांधी ने एक शर्त रखी कि अगर युद्ध समाप्त होने के बाद आप भारत को स्वतंत्र करें तो भारत के सैनिक आपका युद्ध में साथ देंगे। इस समझौते के बाद भारत के सैनिकों ने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की ओर से भाग लिया। जिनका शौर्य प्रमाण रूप इंडिया गेट पर द्वितीय विश्व में शहीद हुए सैनिकों के नाम के रूप में अंकित है।
परंतु विडंबना यह हुई कि जिन वीर सपूतों ने स्वाधीनता संग्राम के आंदोलन में अंग्रेजों की नाक में दम किया, उनकी आँख में आँख डालकर बातें की, ऐसे चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, लाला लाजपत राय, सुखदेव, राजगुरु, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि जैसे साहसी, तेजस्वी, राष्ट्रभक्त महापुरुष स्वाधीनता के समय उपस्थित नहीं थे और कुछ कमजोर सत्ता के लोभी लोगों के हाथ में स्वाधीन देश आ गया। भारत विभाजन के मूल कारकों द्वारा भूल से लचीला संविधान लिख दिया गया। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि स्वाधीन देश को प्रारंभ में ही ऐसे शिक्षा मंत्री मिले जिनका भारतीय ज्ञान परंपरा, भारतीय दर्शन से दूर-दूर का वास्ता नहीं था। परिणाम भारत के वास्तविक इतिहास, दर्शन, ज्ञान परंपरा को दरकिनार कर अजीब शिक्षा प्रणाली स्थापित कर दी गई। जिसका परिणाम हमारे सामने है कि अंग्रेज तो छिहतर वर्ष पूर्व चले गए परंतु अंग्रेजियत पीछा नहीं छोड़ रही और न ही मानसिक गुलामी। जो शिक्षा भारतीयों को नैतिक मूल्यों से ओत- प्रोत कर वीर, ओजस्वी, कर्तव्य परायण, राष्ट्रभक्त और ईमानदार, बनाती थी उस पाठ्यक्रम को पुस्तकों से दूर कर दिया गया। एक गलत इतिहास पाठ्यक्रम में थोप दिया गया। जिन आतताईयों ने भारतीयों पर अत्याचार किए उन्हीं का महिमामंडन पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर दिया गया। ताज़्जुब है कि जो भारतीय समाज सैकड़ों वर्षों तक अंग्रेजों, मुगलों के विरुद्ध लड़ता रहा वह अपने जैसे दिखते छद्म बहरूपियों, अत्याचारियों को पहचानने में धोखा खा गया। स्वतंत्रता के जश्न में वह ऐसा मदहोश हुआ कि पता ही नहीं लगा कि मार्क्सवादियों ने भारत का वास्तविक इतिहास बदल दिया। भारत के प्रतीक चिह्न, मान बिंदुओं को मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है जो खुलेआम भारत माँ को डायन कहने वाले,कानून की धाराओं का लाभ उठाकर, सरकारी राशन, सुविधाओं पर ऐश करते हैं। संविधान की दुहाई देने वाले ही संविधान की प्रतियां जलाते हैं।
विभाजन भारत व भारतवासियों के लिए 1947 में विभीषिका और कालांतर में नासूर बन गया। मुस्लिम लीग के सीधी कार्यवाही (डायरेक्ट एक्शन) में उन्मादियों, जेहादियों ने अबोध निरपराध हजारों लोगों का कत्लेआम किया। अबलाओं संग बलात्कार और आगजनी की। बंटवारे में लगभग बीस लाख लोग कत्ल कर दिए गए। तथाकथित बहादुर कौम? ने महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों को भी नहीं बख्शा। विभाजन के समय पाकिस्तान से आने वाली रेलगाड़ी में एक भी जिंदा इंसान नहीं आया हजारों लाशें भाईचारे के तोहफे में भेजी गई थी। जो हिंदू, सिख 1947 में बटवारे में पाकिस्तान के क्षेत्र में रह गए वे गंगा जमुनी भाईचारे में चुन-चुन कर प्रतिदिन मारे जा रहे हैं और भारत में विशेष सुविधाएं प्रदान कर सहेजे गए, खा-खा के गुर्रा रहे हैं।
विभाजन विभीषिका कभी न भूलने वाला तथाकथित, कपोलकल्पित भाईचारे का मंजर है। राजनीति स्वार्थियों, सत्तालोलुपों से ग्रस्त है। इसलिए अधिकांश राजनेताओं के दंगों, आतंकी घटनाओं में चश्में ब्लर हो जाते हैं।
स्वाधीनता दिवस पतंगबाजी, गुब्बारे अथवा शांति के कबूतर उड़ाने के लिए नहीं। यह पिकनिक मौज मस्ती के लिए भी नहीं, अपितु विभाजन विभीषिका का स्मरण दिवस है। अनाम शहीदों की स्मृति को संजोए रखने का शहीदी दिवस है। अंग्रेजों और चाटुकारों के छल-फरेब को याद रख सावधान हो जाने का दिवस है। भारत के विरुद्ध आज भी षड्यंत्र रचने में सक्रीय आस्तीन के साँपों को पहचान फन कुचलने और सजग होने का दिवस है। भारत के विरुद्ध छद्म युद्ध चला रहे देशी- विदेशी षड्यंत्रकारियों को दहन करने का दिवस है और भारत को आंतरिक रूप से सशक्त करने का दिवस है।
ए मेरे वतन के लोगों अब आंख में पानी बहुत भर लिया। आंसू बहाने से नहीं, अंगारे बरसाने की, राष्ट्र विरोधियों की चालों को समझ दृष्टि और दिमाग तेज करने की आवश्यकता है।
_ संजय स्वामी