बाबा रामदेवः योग संस्कृति पुनर्जागरण के प्रवर्तक
मुख्यालय – पतंजलि योग पीठ हरिद्वारगुरू
मंत्र –ऊं
विशेषता – प्राचीन योग विधा को दोबारा लोकप्रिय बनाया
योगी, राजनीतिज्ञ, आंदोलनकारी, सफल व्यापारी या विवादित व्यक्तित्व, बाबा रामदेव के अनेक आयाम हैं। लेकिन उनकी पहचान का सबसे बड़ा आधार है – योग। कहा जाता है कि जब वो ढाई साल के थे तब उन्हें लकवा मार गया, परंतु योगाभ्यास से उन्होंने इस बाधा को भी दूर कर लिया।
हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के हज़ारीबाग अली सय्यदपुर गांव के एक किसान परिवार में 25 दिसंबर 1965 को बाबा रामदेव का जन्म हुआ। उनके पिता रामनिवास यादव और मां गुलाबो देवी दोनों ही खेती बाड़ी करते थे। माता-पिता ने प्यार से उनका नाम रामकृष्ण यादव रखा। लेकिन स्वामी शंकरदेव जी से सन्यास की दीक्षा लेने के बाद उन्होंने अपना नाम स्वामी रामदेव कर लिया। उन्होंने अनेक गुरूकुलों में योग, संस्कृत, भारतीय शास्त्रों आदि की शिक्षा ली और आखिर में वो हरिद्वार स्थित गुरूकुल कांगड़ी गए जहां उन्होंने भारत के प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन में अनेक वर्ष लगाए।
वर्ष 1995 में उन्होंने दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट की स्थापना की। उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन 2003 में आया जब आस्था चैनल ने सुबह उनके योग कार्यक्रमों का प्रसारण आरंभ किया। इससे देखते ही देखते उनके लाखों प्रशंसक बन गए। धीरे धीरे उन्होंने देश भर में योग शिविरों का आयोजन आरंभ कर दिया। उनके योग शिविरों में आम आदमी ही नहीं, अनेक सेलेब्रिटीज़ भी भाग लेने लगे। उनके शिष्यों में सदी के महानायक अभिताभ बच्चन और अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी का नाम शामिल है।
बाबा रामदेव ने भारत ही नहीं विदेशों में भी योग शिविरों का आयोजन किया। इंग्लैंड, अमेरिका, जापान आदि में उन्होंने खूब धूम मचाई। ।
दुनिया भर में योग के प्रति जिज्ञासा और जागरूकता जगाने के बाद बाबा रामदेव ने अपने प्रयासों को संस्थागत रूप देने के लिए हरिद्वार में पतंजलि योग विद्यापीठ की स्थापना की। इसमें योग शिक्षा, अनुसंधान, चिकित्सा आदि की सुविधाएं हैं। आज इसकी शाखाएं इंग्लैंड, अमेरिका, नेपाल, कनाडा ओर मारीशस में भी फैल चुकी हैं।
इसके बाद बाबा रामदेव ने पतंजलि आयुर्वेद की स्थापना की। वर्ष 2006 में हरिद्वार में आरंभ की गई ये कंपनी मुख्यतः डिब्बाबंद (पैकेज्ड) उपभोक्ता सामग्री बेचती है था। बाबा रामदेव की सफलता ने कोलगेट, डाबर, आईटीसी, गोदरेज आदि जैसी स्थापित और प्रतिष्ठित उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियों को भी अपनी रणनीतियों के बारे में फिर से सोचने के लिए मजबूर किया।
साल 2010 में बाबा ने भारत स्वाभिमान नाम के दल कि साथ राजनीति में कदम रखा। पहले उनका विचार हर लोकसभा क्षेत्र में उम्मीदवार उतारने का था, लेकिन बाद में उन्होंने तय किया कि वो महत्वपूर्ण मसलों पर जनमत तैयार कर राजनीतिक दलों पर जनता के हित में काम करने के लिए दबाव बनाएंगे। पत्रिका इंडिया टुडे ने उन्हें भारत के सबसे शक्तिशाली 50 लोगों की सूची में पांचवां स्थान दिया था । अमेरिकी व्यापार पत्रिका फास्ट कंपनी ने उन्हें ‘क्रिएटिव बिजनेस पीपल लिस्ट’ में 27वां स्थान दिया।
श्री श्री रविशंकर
पहचान – मानवीय मूल्यवादी , शांतिदूत
संस्थापक – आर्ट ऑफ लिविंग
मुख्यालय – बैंगलुरू , कर्नाटक
मूलमंत्र – live in the present moment , जो बीत गया उसे जाने दो ,
श्री श्री रविशंकर की पहचान किसी एक धर्म या संप्रदाय के गुरू के रूप में नहीं बल्कि मानवता वादी, शांति दूत की है । जो जीवन को तनावों से दूर शांति से रहने की कला लोगों को सीखाते हैं । उन्होनें अपनी संस्था का नाम भी जीने की कला यानि ऑर्ट ऑफ लिविंग रखा है । धर्म जाति, नस्ल देश की दीवारों से उपर है आर्ट ऑफ लिविंग जिसे दुनिया को कोई भी इंसान अपना कर अपना जीवन सुखी बना सकता है ।
श्री श्री रविशंकर की स्वीकार्यता सत्ता के शक्तिशाली गलियारों से लेकर समाज के हर वर्ग हर देश में है । ऑर्ट ऑफ लिविंग की शाखाएं देश विदेश में चल रही है । पतले दुबले सौम्य शांत श्री श्री रविशंकर वेदों पुराणों धार्मिक कर्मकांडों से दूर हैं । उनके सत्संग भी आम धर्म गुरूओं से अलग हट कर हैं । नयी सोच की युवा पीढ़ी वाले उनके बहुत से अनुयायी उन्हें इसीलिए पसंद करते हैं कि उनका सत्संग उपदेशों से बोझिल नहीं होता । इनके सत्संग में मनचाहा करने की छूट है । जिसका दिल गिटार बजाने का है वो गिटार बजाए , जिसका दिल तबला बजाने का है वो तबला बजाए , जो गाना चाहता है वो गाए जो नाचना चाहता है वो नाचे । युवा पीढ़ी इसे फन सत्संग कहती है । फन सत्संग में हिस्सा लेने वाली उनकी एक अनुयायी ने बताया कि फन सत्संग अल्टीमेट है इसमें बहुत पोजटिव वाईब्रेशंन्स होती है । रिदमिक सत्संग तन मन को ताज़गी और उर्जा से भर देती है ।
डॉ प्रणव पंड्या – ज्ञान और विज्ञान की प्रतिमूर्ति
संचालक– गायत्री परिवार शांति कुंज हरिद्वार
मुख्यालय – हरिद्वार
गुरू मंत्र – गायत्री मंत्र
उद्देशय – युग निर्माण
जीवन मंत्र – हम बदलेंगे,युग बदलेगा
डॉ प्रणव पंड्या ज्ञान- विज्ञान और आध्यात्म का अनूठा संगम है । मेडिसन में गोल्ड मेडल लेकर एम डी करने के बाद आध्यात्म के मार्ग पर चलने का निर्णय कोई बिरला ही ले पाता है । डॉ प्रणव पंड्या अपने जीवन के इस परिवर्तन को अपने गुरू स्वर्गीय आचार्य श्री राम की कृपा मानते हैं । वो अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें सद्गुरू मिला जिसने ज्ञान की राह दिखायी । उन्हें ये बताने में भी कोई संकोच नहीं है कि गुरू की शरण में आने से पहले वो केवल शिक्षित थे ज्ञान तो गुरू ने दिया । शिक्षा और ज्ञान का अंतर समझाया । वो बताते हैं कि — जब मैं हरिद्वार आया तो अपने एम डी होने का गुमान और अंहकार साथ ले कर आया था । मेरे गुरू ने मुझे बताया तुम्हारे पास केवल शिक्षा है ज्ञान नहीं ज्ञान पाना है तो वेद पढ़ो , उपनिषद पढ़ो , जीवन का तत्व वहीं मिलेगा । उस समय अच्छा नहीं लगता था ।लेकिन मेरे गुरू ने मेरे अंहकार को कुचल कर ज्ञान की ज्योति जलायी । मुझे समझ आया कि किताबी जानकारी और ज्ञान में कितना अंतर है । गुरू ने बहुत परखा बहुत परीक्षाएं लेने के बाद अपनी शरण में लिया।
प्रणव पंड्या गायत्री परिवार शांतिकुंज के संचालक हैं । आज से 39 साल पहले वो शांतिकुंज के युग निर्माण मिशन में ब्रह्मावर्चस अनुसंधान केंद्र के निदेशक बन कर आए थे । उन्हें भी ये आभास नहीं था कि ये नौकरी उनके जीवन को नयी दिशा दे देगी । ज्ञान भक्ति और युगनिर्माण की राह पर ले जाएगी । उन्होनें आयुर्वेद , मनोविज्ञान ,योग के लाभ पर रिसर्च की । प्राणायाम और मेडिटेशन का मन मस्तिष्क और शरीर पर प्रभाव पर भी अनुसंधान किया । अपने गुरूदेव के सानिध्य में उन्होनें 1978 से 1990 तक विज्ञान , योग मन , आध्यात्म पर गहन शोध किया । अनेक किताबें लिखीं । गुरू की परीक्षा मैं जब वो पूरी तरह उत्तीर्ण हो गए तो उन्होनें गुरू देव ने उन्हें गायत्री परिवार का ग्लोबल हेड नियुक्त किया । ये भी एक संयोग ही रहा कि आचार्य श्री राम शर्मा की पुत्री उनकी जीवन संगिनी बनी ।
अपने गुरू के ध्येय को निरंतर आगे बढाते रहे । दुनिया के 80 देशों में गायत्री परिवार की शाखाएं स्थापित कीं । ऋषि मुनियों ने ब्रह्मांड के रहस्यों की जिन पर्तों को हज़ारों वर्ष पहले खोल दिया था और जो जीवन शैली जीने की पद्धित विकसित की वो पूरी तरह से वैज्ञानिक थी । डॉ पंड्या ने भारतीयों द्वारा विस्मृत कर दी गयी विज्ञान और आध्यात्म के आपसी संबंध को एक बार फिर अपने शोध से प्रमाणित किया । वर्ष 1993 में वर्ल्ड रिलीजन पार्लियामेंट में भारतीय संस्कृति का वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया । इससे पहले 1992 में उन्होने युनाइटेड किंगडम में हॉऊस ऑफ लार्डस और हाऊस ऑफ कॉमन के संयुक्त सत्र को संबोधित किया । युवा शक्ति को साकारात्मक उर्जा देने के लिए उन्होनें .वा कैंप लगाए और लाखों युवाओं को साधना और उपासना के पथ पर चलने को प्रेरित किया ।
रमेश भाई ओझाः भागवत कथा वाचक
गुरूमंत्रः कंठी दीक्षा नहीं कंठ दीक्षा
मुख्यालयः पोरबंदर गुजरात
उपासकः कृष्ण भक्त
रमेश भाई ओझा भागवतकथा के भारत में और विदेशों में प्रचार-प्रसार के लिए जाने जाते हैं। उनके लाखों भक्त हैं लेकिन वे स्वयं को गुरू नहीं मानते और न ही किसी को दीक्षा देते हैं। वे कहते हैं —“ मैं ठाकुर जी का भक्त हूं। केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन करता हूं। श्रीमद्भागवतपुराण कथा सुनाता हूं। भगवान श्री कृष्ण का वांग्मय रूप है श्रीमद्भागवतपुराण। जब मैं कथा कहता हूं तो भगवान स्वयं भागवत के माध्यम से श्रोताओं को दीक्षा देते हैं। कृष्ण स्वयं जगद्गुरू हैं। कहा भी गया है दृ कृष्णं वंदे जगद्गुरूम्।’’
रमेश भाई ओझा के लिए गुरू परंपरा वंदनीय है। गुरू पूर्णिमा उनके लिए वेद व्यास जी, आदिगुरू शंकराचार्य ,महान संतों और वर्तमान विवेकी मार्गदर्शकों, तपस्वियों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का पर्व है।
रमेश भाई ओझा किसी को दीक्षा नहीं देते, संसार छोड़ देने या संन्यास लेने का उपदेश नहीं देते। वे अंधश्रद्धा, अहंकार और अंधकार से मुक्ति पाने का उपदेश देते हैं और विवेक सहित भक्ति को श्रेष्ठ बताते हैं। अपने श्रोताओं को वे कंठीदीक्षा के बजाय कंठदीक्षा का उपदेश देते हैं ।
ज्ञान और तप से दमकता चेहरा, माथे पर चंदन का तिलक श्वेत वस्त्र पहने व्यासपीठ पर बैठे रमेश भाई ओझा को देख कर सहज ही श्रद्धा जागती है। उनका जन्म गुजरात के सौराष्ट्र में देवका गांव में एक ब्राह्ण परिवार में 31 अगस्त 1957 को हुआ था। चाचा जीवराज भाई ओझा कथा वाचक थे। रमेश भाई ओझा के धार्मिक रूझान को देखते हुए चाचा ने उन्हें कथावाचन का प्रशिक्षण देना आरंभ कर दिया। 13 वर्ष की आयु में उन्होंने पवित्र गंगोत्री धाम में पहली कथा की, पिर पांच साल बाद मुंबई में दूसरी कथा…धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता देश-विदेश में बढ़ती चली गयी। भागवत कथा के माध्यम से उन्होने लाखों लोगों के जीवन बदले, उन्हें नयी दिशा दी।
वेदों-उपनिषदों-पुराणों के ज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उन्हांेने समाज-उत्थान का भी गंभीर प्रयास किया है। कथाओं से प्राप्त धनराशि से पोरबंदर के पास देवका विद्यापीठ और संदीपनी विद्यानिकेतन चल रहे हैं जहां बारहवीं तक सहशिक्षा दी जा रही है। व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए एक आई. टी. आई. भी चल रहा है। दूरदराज़ के आदिवासी छात्रों के लिए एक आवासीय स्कूल चल रहा है। पोरबंदर क्षेत्र के हजारों बच्चों का जीवन रमेश भाई ओझा ने संवारा है। इसके अलावा उन की प्रेरणा और मार्गदर्षन से गरीबों के लिए मेडिकल कैंप और अन्नक्षेत्र भी चलते हैं।
संत समाज और भक्तों के बीच भाई श्री के नाम से जाने जानेवाले रमेश भाई ओझा के लिए गुरू और शिष्य के संबंध का अपार महत्व है। वे षास्त्रोक्त सूत्र की याद दिलाते हैं- ‘‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’’ और मानते हैं कि शिष्य को गुरू के प्रति सच्चा श्रद्धा रखनी चाहिए, ‘‘एक पाषाण प्रतिमा में श्रद्धा रख कर सिद्धियां पायी जा सकती हैं तो एक सशरीर गुरू में सच्ची श्रद्धा भवनिधी पार करा सकती है। भाव, श्रद्धा, समर्पण और ज्ञान प्राप्ति के लिए तत्परता ही सच्चे शिष्य के गुण हैं।’’
संत मुरारी बापू – आधुनिक गोस्वामी तुलसीदास
संत मुरारी बापू – राम कथा वाचक
निंबार्क संप्रदाय
उपासना – भगवान श्री राम
मुख्यालय – महुआ जिला भाव नगर गुजरात
गुरू मंत्र – कथा में भले सो जाओ, जीवन में जाग्रत रहो
विशेषता – हिंदु मुस्लिम में समान रूप से लोकप्रिय
मुरारी बापू जन जन के मन में बसे भगवान राम की कथा कहते हैं । श्री रामचरितमानस को सरल सुंदर और सहज तरीके से सुनाते हैं । उऩकी शैली अलग है वे 21 वीं सदी के उदाहरण देकर समझाते हैं तो श्रोताओं की रूचि बढ़ना स्वाभाविक हो जाता है । संत मुरारी बापू वाचक के साथ साथ अच्छे गायक भी है । रामायण की चौपाइयों को जब वो मधुर संगीत के साथ गाते हैं तो श्रोता मंत्र मुग्ध हो कर सुनते हैं । भारत के महान संतों में आज उनकी गिनती हैं । देश विदेश में वो अब तक 750 से ज्यादा कथाएं कर चुके हैं ।
उनकी विशेषता ये हैं कि रामभक्त और रामकथा वाचक होने के बाद भी मुस्लिम समाज में उनकी स्वीकार्यता है. धर्म कर्म से दूर भागने वाला युवा वर्ग भी उनकी कथाओं में भारी संख्या में उपस्थित रहता है । उनका प्रयास है कि समाज में लोग धर्म जाति , अमीर गरीब से उपर उठ कर मानवता , भाईचारे , सदभाव और शांति का संदेश देते हैं के साथ जीना सीखे । अपनी कथाओं के माध्यम से ना जाने कितने हृद्यों का वो परिवर्तन कर चुके हैं ।
सदगुरू जग्गी वासुदेव
जगदीश वासुदेव – योग और आध्यात्म गुरू
संस्था – ईशा फाऊंडेशन
मुख्यालय — कोयंबटूर
ईष्ट देव – भगवान शिव
विशेषता — इनर इंजिनियरिंग कैंप्स
जग्गी वासुदेव आधुनिक युग के ऐसे आद्यात्मिक गुरू हैं जिन्होने धर्मगुरूओं की परंपरागत छवि को तोड़ा है । पहनावे से लेकर जीवनशैली तक सब लीक से हट कर । कभी जींस में दिखेंगें तो कभी महंगे दूप के चश्मे लगाए हुए मोटरसाइकिल चलाते हुए । उन्होनें योग को अपना आधार बनाया लेकिन साथ ही मन के परिवर्तन पर ज़ोर दिया । मन बदलो सब कुछ बदलेगा । पहले स्वयं को बदलो यही उनका मुख्य उपदेश है । स्वयं के बदलाव को उन्होने नाम दिया इनर इंजिनियरिंग । इनर इंजिनियरिंग के कैंप वो देश विदेश में चलाते हैं । उनकी इस नयी सोच का ही शायद परिणाम है कि समाज का उच्चा और आधुनिक तबका , धर्म करम से दूर रहने वाली युवा पीढ़ी उनके साथ जुड़ गयी । बहुत से से युवा उनके साथ जुड़े हैं जो अपनी हाई प्रोफाइल नौकरी छोड़ कर जग्गी गुरूदेव के अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं ।
उनकी लोकप्रियता, स्वीकार्यता और समाज परिवर्तन में योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें इस साल देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया है । प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी महाशिवरात्रि के अवसर पर उनके कोयंबटूर आश्रम गए थे जहां उन्होने आदियोगी भगवान शिव की 112 फीट उंची विशाल प्रतिमा का अनावरण किया था । राजनीतिक गलियारों और देश के जाने माने उद्योगपतियों में उनकी अच्छी खासी पैठ है । प्रतिमा को लेकर कुछ विवाद हुए तो उन्होनें कहा आदियोगी को देख कर लोग योग की राह पर चलने को प्रेरित होंगे ।
जग्गी बासुदेव का जन्म कर्नाटक के मैसूर में तीन सितंबर 1957 को हुआ । उनके पिता डॉ वासुदेव के रेलवे में सुप्रसिद्ध नेत्र विशेषज्ञ थे । मां सुशीला गृहणी थीं । उनका नाम जगदीश रखा गया । रेलवे की नौकरी के कारण पिता की जगह जगह पोस्टिंग होती रहती थी । बारह वर्ष की आयु में जग्गी वासुदेव स्वामी राघवेंद्र के संपर्क में आए जिन्होंने उन्हें योगासन सिखाए । स्वामी जी ने नन्हे बालक के मन में योग के बीज बो दिए । स्कूल कॉलेज की पढ़ाई पूरी की लेकिन योग से नाता बनाए रखा । उन्होनें इंगलिश लिटरेचर में मैसूर युनिवर्सिटी से बीए किया । उन्हें घुमक्कड़ी का बहुत शौक था । दोस्तों के साथ मोटरसाईकिल पर लंबी लंबी यात्राएं की । रोज़ी रोटी के लिए कुछ छोटे मोटे व्यापार किए । पोल्ट्री फार्म खोला । ईंटों का भट्टा चलाया कंस्ट्रक्शन का काम किया । लेकिन उनके लिए भगवान ने कुछ और ही मार्ग चुन रखा था । सितंबर 1982 में उनके जीवन में नया मोड़ आ गया । चामुंडा की पहाडियों पर जब वो जा कर कुछ देर बैठे तो उन्हें आध्यात्मिक अनुभव हुए । उसके बाद उनका बिजनेस में दिल नहीं लगा लगभग डेढ़ महीने बाद अपना व्यापार अपने मित्र को सौंप कर वो आध्यात्मिक मार्ग पर चल पड़े । ज्ञान और सत्य की खोज में लगे रहे एक साल तक अलौकिक शक्तियों की खोज योग ध्यान मनन करते रहे । और जब उन्हें लगा अब जीवन में कुछ सार पा लिया है तो उन्होंने योग की निशुल्क कक्षाएं लेनी शुरू कर दीं । पहली योग क्लास मैसूर में सात लोगों के साथ शुरू की । फिर सिलसिला बढ़ता ही गया ।
सद्गुरू जग्गी वासुदेव ने स्वयं को किसी एक धर्म के साथ नहीं जोड़ा । उन्होनें सब धर्मों के लोगों का सम्मान और स्वागत किया । उनके कोयंबटूर आश्रम के साधना कक्ष में हर धर्म के प्रतीक चिन्ह हैं । लगभग 76 फीट उंचे ध्यानलिंगम् पर दुनिया के सभी मुख्य धर्मों के प्रतीक उकरे गए हैं । उनके अनुयायियों में हर धर्म हर आयु के लोग हैं । ईशा योग फाऊंडेशन स्थापना 1993 में की गयी थी ये गैर धार्मिक स्वयं सेवी संस्था है जिसे स्वंयसेवी चलाते हैं । यहां आत्म जागृति और योग के विभिन्न कार्यक्रम होते हैं । वर्क शॉप होती हैं । ईशा फांडेशन संयुक्त राष्ट्र की आर्तिक और सामाजिक फांऊडेशन के साथ मिल कर काम करती है ।
आधुनिक धर्म गुरू आत्म चेतना आत्म सुधार योग , मनन के साथ साथ बहुत सी सामाजिक संस्थाएं भी चलाते हैं । प्रोजेक्ट ग्रीन हेंड उनकी महत्वकांक्षी योजना तमिलनाडु में प्रयावर्ण बचाने की ज़ोरदार मुहिम चला रहे हैं । पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए 2012 में उन्हें दुनिया के 100 शक्तिशाली लोगों की सूची में शामिल किया गया था । संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम विश्वशांति शिखर सम्मेलन में उन्होनें भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारत की प्राचीन शांति अवधारणा के बारे में दुनिया को बताया ।लोगों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में भी भरपूर मदद कर रहे हैं ।
सद्गुरू जग्गी वासुदेव महादेव के उपासक हैं । हर वर्ष महाशिव रात्रि पर कोयंबटूर आश्रम में महादेव का भव्य रूद्राभिषेक किया जाता है । चार पहर की पूजा में रात भर जागरण चलता है । इस अवसर पर उनके लाखों शिष्य दुनिया के कोने कोने से आते हैं । कैलास मानसरोवर की यात्रा पर वो लगभग 500 लोगों की जत्था लेकर गए थे । लेकिन कर्म कांड वो किसी पर थोपते नहीं । आत्म सुधार पर जोर देते हैं । चंचल मन को नियंत्रण में करना स्वयं को जीतना हर व्यक्ति को ध्येय होना चाहिए । यही उनका प्रयास है इनर इंजिनियरिंग वर्कशॉपस के माध्यम से उनका सद्प्रयास जारी है । आधुनिक गुरू ने पंरपरागत छवियों और नियमों को तोड़ते हुए धर्मगुरू की नयी अवधारणा गढ़ी जो सहज स्वीकार कर ली गयी है ।