दीवारों के मुख से – एक बलिदान कथा “वीर बाल दिवस’ चारों साहबजादों के बलिदान दिवस पर विशेष

 

हरबंस सिंह
कथाकार

सन् 1704 का सर्द दिसंबर महीना। वह पूरा दिसंबर सिख पंथ पर भारी रहा था। जब चारों साहबजादे अमर शहीद हो गए। गुरु जी की माता व साहबजादों की दादी जी को प्राण त्यागने पड़े।
… पिछले सात महीने से पंजाब में आनंदपुर साहब का पहाड़ी पर बना किला , मुगलों और उनके कुछ सहयोगी पहाड़ी राजाओं के घेरे में था। शत्रु समूह गुरु गोविंद सिंह जी को परास्त करने में असफल नजर आ रहा था । किले पर बाहर से तीरों की वर्षा होती , तोपों की गर्जना के साथ गोले लगातार भीतर बरसाए जाते ।
औरंगजेब का कमांडर नवाब वजीर खान अपनी असफलता पर क्रोध में पागल होता जा रहा था। वह रात को नींद से उठकर बैठ जाता और बैठे बैठे रात बिता देता। उसे आज भी याद है जब औरंगजेब ने उसे अंगार भरी नजरों से कहा था, “ वजीर खान अगर तुम सच्चे गाज़ी हो तो गुरु गोविंद सिंह को पकड़ कर मेरे सामने पेश करो। खालसा पंथ सजाने वाले गुरु के परिवार का एक-एक सदस्य इस्लाम धर्म में आना चाहिए । समझे! तभी मेरी जीत होगी। …अजीब कौम है ये सिक्ख, अपने और साथियों की रक्षा के लिए शहीद हो जाएंगे पर कुव्वते इस्लाम से जरा भी नहीं डरेंगे। ये हमारी मानसिकता पर चोट करते हैं, और हम बेहद कमजोर, असहाय से केवल हाथ मलते रह जाते हैं। अगर तुम अपने शहंशाह के सच्चे सिपाही हो तो यह तौहफा मुझे जरूर लाकर देना ।”
आनंदपुर साहब के किले को घेरकर दुश्मन की ओर से ऐसा प्रबंध किया गया कि अंदर राहत सामग्री और हथियार बिल्कुल न जा पाएं। गुरु के सिख किले में अनाज के एक-एक दाने और पानी की एक एक बूंद के लिए तरस जाएं । किला बहुत ऊंचाई पर था, बाहर से जीतना कठिन लग रहा था ।
रणनीति बदली गई। नवाब वजीर खान ने किले के अंदर संदेश भिजवाया , “ सिख सैनिक भूखे प्यासे कब तक किले में बंद रहेंगे? आप किला खाली करके निकल जाओ! हम अपने धर्म की कसम खाकर कहते हैं कि आपको सुरक्षित जाने देंगे। पीछे से हमला नहीं करेंगे । पहाड़ी हिंदू राजा भी आपके बीच अड़चन न बनेंगे । वे भी कसम खाते हैं। “
दसवें गुरु गोविंद सिंह जी जानते थे कि शत्रु की कसमें, आश्वासन सब झूठे हैं ,पर खाली पेट, भूखे सैनिकों के बल पर युद्ध भी नहीं जीते जाते!
अंधेरी रात को बाहर निकलते ही मुगल और पहाड़ी राजाओं ने पीछे से भयंकर आक्रमण कर दिया। वर्षा हो रही थी। इधर सरसा नदी भी तूफान पर थी । उसका ऐसा रौद्र रूप कि अधिक से अधिक जान माल का नुकसान करेगी ।
गुरु जी ने साहबजादा अजीत सिंह, साहबजादा जुझार सिंह तथा मुट्ठी भर सैनिकों के साथ चमकौर साहब की एक गढ़ी में प्रवेश कर, शत्रु को रोकने का प्रयास किया। यहीं पर वीरता दिखाते हुए एक के बाद एक दोनों साहबजादों ने वीरगति प्राप्त की। 17 और 13 वर्ष के साहबजादों की युद्ध कला देखकर शत्रु सैनिक भी बोल उठे ,” साहबजादे थे तो हमारे दुश्मन , पर मानना पड़ेगा – लड़े आंधी- तूफानों की तरह ! “
इस संकट काल में परिवार बिछड़ गया । दोनों छोटे साहबजादे अपनी दादी माता गुजरी के साथ अकेले पड़ गए। 9 वर्षीय साहबजादे का नाम जोरावर सिंह तथा 6 वर्षीय साहबजादे का नाम फतेह सिंह था।
इसी दौरान माता गुजरी व दोनों छोटे साहबजादों की भेंट गंगाराम से हुई, जो पिछले कई सालों से गुरु घर का रसोइया रह चुका था । रसोइया सुरक्षा का भरोसा दे उन्हें अपने साथ घर ले आया । पर जल्दी ही उसके सिर पर लालच नाचने लगा। पाप ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी। माता गुजरी की मोहरों भरी थैली की खनक उसे बेचैन करने लगी।
जिन्हें आश्रय दिया था, उन्हें ही कमरे में बंद कर लालची, विश्वासघाती गंगाराम कोतवाली की ओर निकल पड़ा।
कोतवाली के पहरेदारों ने पूछा, “ क्या बात है गंगाराम जी? बड़े खुश नजर आ रहे हो! हाथ में मिठाई का डिब्बा भी है ! आप तो सिखों के दसवें गुरुजी के घर में रसोइए थे ना ?”
गंगाराम ने कहा,” हां, मैं वही रसोईया हूं। पर आज मैं वजीरखान नवाब साहब के लिए वह शुभ समाचार लेकर आया हूं कि वह मुझे मालामाल कर देंगे! मेरी झोली अशर्फियों से भर देंगे!”
“ ऐसी क्या खबर लाए हो गंगाराम जी ? आखिर हम भी तो सुने! “ सिपाहियों ने गंगाराम की बाहें पकड़कर जानना चाहा ।
“ तो कान इधर लाओ और सुनो – ‘ गुरु जी के दोनों छोटे साहबजादे और उनकी माता जी मेरे घर पर शरण लेकर ठहरे हुए हैं। जल्दी से जल्दी आप उन्हें गिरफ्तार करो और इनाम से मेरी झोली भरकर निहाल कर दो।’” गंगाराम की आंखों और मन में उतावलापन था।
अनुभवी पहरेदारों ने पूछा, “ अरे गंगाराम जी! गुरु जी की माता के पास कुछ सोने के गहने और नगदी भी रही होगी । उसका तुमने क्या किया? “ सिपाहियों ने छेड़ते हुए कुरेदा।
गंगाराम सकपकाया, बोला कुछ नहीं । नजरें चुराते हुए दूसरी ओर मुंह कर मुस्कुरा दिया। कल रात ही वह माता जी की गहनों तथा पैसों की थैली चुरा चुका था।
वजीर खान के हुक्म से दोनों छोटे साहबजादों और दादी मां को सरहिंद किले के ठंडे बुर्ज पर खुली सर्द हवा में कैद कर लिया गया। गर्मियों के लिए बनवाया गया यह बुर्ज बहुत ऊंचा, चारों ओर से खुला हुआ और तेज हवाओं के लिए प्रसिद्ध था।
नंगा ठंडा फर्श, नीचे ऊपर कोई एक गर्म कपड़ा तक नहीं। आखिरी सांस तक खाना पीना ना मिले , ऐसी निगरानी भी चालू हो गई ।
गंगाराम जैसे कुछ स्वार्थी, लोभी और धर्म विरोधी लोग पतन की पराकाष्ठा पर पहुंचते हैं; तो बहुत से आत्मबलिदानी ऐसे अवसरों पर इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। मोतीराम मेहरा जी इस किले में दूध सप्लाई करते थे। । दोनों छोटे साहबजादों और उनकी दादी जी को ठंडे बुर्ज पर भूखा – प्यासा रखा गया है। जब उन्हें मालूम हुआ तो मोतीराम जी पहरेदारों को धन देकर, चोरी छुपे साहबजादों और दादी जी को दो दिन तक पेट भर दूध पिलाते रहे। निषेधाज्ञा पर वजीर खान कैसा भयंकर प्रतिशोध लेगा उन्हें विस्तार से मालूम था ।
ठंडे बुर्ज पर संध्या समय दोनों साहबजादे दादी की गोदी में सर रखकर लेटे हुए थे । दादी ने पूरा वृतांत सुनाया कि कैसे मुगल बादशाह जहांगीर ने उनके परदादा पांचवे गुरु श्री गुरु अर्जन देव जी को खौलते हुए गर्म पानी में उबाला । सर पर गर्म रेत भी डाली। गुरु अर्जन देव जी ने शहादत दी पर क्रूर सत्ता के आगे धर्म परिवर्तन नहीं स्वीकारा।
साहबजादों ने यह भी सुना कि कैसे उनके दादा श्री गुरु तेगबहादुर जी को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में शीश काटकर शहीद कर दिया । पर ना गुरु जी , और न उनके शिष्यों को भयभीत कर बादशाह धर्म परिवर्तन करवा सका।
आज दादी को अपने खून पर भरोसा था । दृढ़ता जानने के लिए दादी ने पोतों के कंधों पर हाथ रखते हुए उनकी आंखों में झांका। उत्तर मिला, “ हम प्राणों की भिक्षा नहीं मांगेगे। बलिदानी परम्परा जारी रहेगी।”
सन् 1704 दिसंबर महीने का तीसरा सप्ताह था, जब दोनों साहबजादों को वजीरखान के सामने अदालत में पेश किया गया।
“ नवाब साहब को सर झुका कर सलाम करो काफिरो !” काजी ने डांट कर कहा।
दोनों साहबजादे मुस्कुरा दिए। काजी ने आगे कहा , “ हमारा महान धर्म इस्लाम स्वीकार करोगे तो ही जान बचेगी। जागीर मिलेगी , आगे मौज मस्ती से जिओगे। नहीं तो तड़पा तड़पा कर मार दिए जाओगे।”
साहबजादों ने जयकारा लगाया, “ जो बोले सो निहाल, सतश्री अकाल।” आगे कहा, “ धर्म के लिए बलिदान होना हमारे सम्माननीय पूर्वजों की परंपरा रही है। जल्दी करो काजी साहब, फतवा जारी करो।”
नवाब मलेरकोटला शेर मोहम्मद खान कचहरी में हाजिर थे । यद्यपि उसके बंधु बांधव चमकौर साहब में गुरु जी के विरुद्ध युद्ध में प्राण त्याग चुके थे , फिर भी उन्होंने कहा, “ मासूमों की हत्या धर्म विरुद्ध है। मैं इस फैसले पर आपके साथ नहीं हूं ।”यह कह कर नवाब शेर मोहम्मद खान कचहरी छोड़कर चले गए ।
हिंदू सिक्ख समाज आज भी नवाब मलेरकोटला का दिल से सम्मान करता है । उस धरती पर आज भी हमेशा सद्भावना बनी रहती है। अच्छा इन्सान होने में कोई धर्म बाधा नहीं बनता।
काजी का फतवा था, “ इन संपोलों को दीवार में जिंदा ही चिनवा दिया जाए। मौत को सामने देखकर यह कच्ची उम्र के नादान लड़के कैसे चिल्लायेंगे, गिड़गिड़ायेंगे ! नगर की जनता के सामने यह तमाशा आज हो ही जाए।”
भारी भीड़ बुलाई गई। साहिबज़ादे शांत चित्त जपजी साहब का पाठ करने लगे। वे यह भी जानते थे की आत्मा अमर है ।छोटे भाई के चेहरे तक दीवार पहुंची तो उसने बड़े भाई से कहा, “ भाई बड़े तो आप हो पर शहीदी मैं पहले प्राप्त कर रहा हूं ।”
बड़े भाई ने कहा , “ ईश्वर का शुक्रिया , कि इस संसार में हम दोनों सगे भाई बन कर आए ।” पाठ चालू रहा।
दीवार पूरी होते ही गिर गई । सैनिकों ने देखा साहबजादों में कुछ प्राण बाकी थे । नवाब ने कहा , “ सिर काटो, काटो सिर!”
मुगल सैनिकों ने मूर्छित साहबजादों के सिर काटकर अपनी वीरता के लिए ईनाम मांगा ।
हत्या से भी धन कैसे कमाया जा सकता है, वजीर खान जानता था । उसने मुनादी करवाई,”अगर कोई गुरु का हितैषी साहबजादों का दाह संस्कार करना चाहता है, तो स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर धरती खरीदनी होगी । मोहरें बिछाकर नहीं , खड़े रूप में रखनी होगी ।”
टोडरमल जी सरहिंद के एक धनी व्यापारी थे । अकबर के नवरत्न राजा टोडलमल उनसे बहुत पहले हो चुके थे। दोनों अलग व्यक्ति थे।उन्होंने अपना व्यवसाय, हवेली सब कुछ बेच दिया और फतेहगढ़ साहब में साहबजादों और उनकी दादी जी का दाह संस्कार करवाया। फतेहगढ़ साहब में आज भी टोडरमल जी की याद में एक स्मारक गुरुद्वारा स्थित है ।
कुछ दिनों के बाद मुगल सैनिकों द्वारा मोतीराम मेहरा जी को परिवार सहित उनके घर से पकड़ लिया गया ।जनता में भय फैलाने के लिए भारी भीड़ के सामने , एक-एक करके सभी को जिंदा ही कोल्हू में पिसवाकर मार डाला गया। मोतीराम मेहरा जी की याद में फतेहगढ़ साहब में आज भी एक स्मारक है ।
वजीर खान को 1710 में सिख सेनापति बाबा बंदा सिंह बहादुर ने सरहिंद के युद्ध में मौत के घाट उतार दिया।
“एक हैं तो सेफ हैं ” नारा भारत में आज दिया गया है । पर यह लागू तब भी होता था जब 1192 में पृथ्वीराज का साथ छोड़ जयचंद दुश्मन मोहम्मद गौरी से जा मिला था । राणा प्रताप का साथ छोड़ राजा मानसिंह अकबर का झंडा उठाकर मेवाड़ पहुंचा था। यह मंत्र तब भी सिद्ध था जब पहाड़ी हिंदू राजा मुगलों से मिलकर अपने स्वार्थ के लिए गुरु जी से युद्ध करने पहुंच गए थे ।
एक हैं तो सेफ हैं! सिख, गोरखा ,जाट, मराठा, राजपूत एक दूसरे के विरुद्ध मुगलों तथा अंग्रेजों द्वारा समय- समय पर उनके स्वार्थ के लिए इस्तेमाल होते रहे। हम अज्ञानी अचेत रहे।आज जाति विभाजन का नया संकट खड़ा कर दिया गया है। क्या आज भी भारत नहीं जागेगा?
विश्व बारूदी धमाकों में जल रहा है। कुदृष्टि लिए काला साया हमारी ओर भी बढ़ रहा है ।

Advertise with us