लालकिले की प्राचीर से- शरत सांकृत्यायन

 

 

 

 

 

 

 

शरत सांकृत्यायन

दिल्ली का लालकिला इन दिनों चर्चा में है। जनता की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से 2017 में भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय ने पुरातत्व विभाग के साथ मिल कर एक योजना शुरू की जिसका नाम था ‘अडॉप्ट अ हेरिटेज-अपनी धरोहर अपनी पहचान’ यानी अपनी किसी धरोहर को गोद लें।” “इसके तहत कंपनियों को इन धरोहरों की सफाई, सार्वजनिक सुविधाएं देने, वाई-फाई की व्यवस्था करने और इससे गंदा होने से बचाने की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा गया था।” इसी के तहत सरकार ने लालकिले के सौन्दर्यीकरण और बेहतर जनसुविधाओं के विकास के लिए लालकिले का जिम्मा डालमिया भारत नाम की कंपनी को सौंपा है। पिछले साल सितंबर में राष्ट्रपति ने इस योजना की शुरूआत की थी और डालमिया भारत ग्रुप पहला उद्योग घराना बन गया है जिसने भारत के ऐतिहासिक विरासत लाल किले को गोद ले लिया है।

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विपक्ष और कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग को सरकार का यह फैसला काफी नागवार गुजरा है। सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर तरह तरह की भ्रामक जानकारियां और अफवाहें उड़ायी जा रही हैं। लोगों को यह कहकर भड़काया जा रहा है कि सरकार ने लालकिले को 25 करोड़ में बेच दिया है। पहली बात तो लालकिले को बेचने की बात ही शरारतपूर्ण और आपत्तिजनक है। हमारी ऐतिहासिक धरोहरों को बेच देने का अधिकार तो कम से कम किसी को भी नहीं है। तो सवाल उठता है कि 25 करोड़ की बात आयी कहां से? अब सरकार और कंपनी के बीच जो 5 साल का अनुबंध हुआ है उसमें पैसों के लेन देन की तो कोई चर्चा ही नहीं है। तो कंपनी द्वारा जारी विज्ञप्ति से मामला साफ हो जाता है। कंपनी ने एक बयान जारी कर कहा है कि कंपनी ने आगामी पांच सालों के लिए दिल्ली के लाल किला और आंध्र प्रदेश के कड़प्पा स्थित गंडीकोटा किले को गोद लिया है। कंपनी सीएसआर इनिशिएटिव यानी कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने के काम के जरिए इनका रखरखाव करने और पर्यटकों के लिए शौचालय, पीने का पानी, रोशनी की व्यवस्था करने और क्लॉकरूम आदि बनवाने के लिए अनुमानित 5 करोड़ प्रतिवर्ष खर्च करेगी। ना कंपनी सरकार को कोई पैसे देगी ना ही सरकार कंपनी को कुछ दे रही है।” “जैसा पहले पुरातत्व विभाग टिकट देता था व्यवस्था वैसी ही रहेगी और बस पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढ़ जाएंगी।

कई लोग इस बात को लेकर भी चिंता जता रहे हैं कि इस धरोहर के रखरखाव की जिम्मेदारी अब डालमिया ग्रुप की हो जाएगी। जबकि सरकार का साफ कहना है कि “इमारत के किसी हिस्से को कंपनी छू नहीं सकती है और इसके रखरखाव का काम पूरी तरह पहले की तरह पुरातत्व विभाग ही करेगा। और भविष्य में अगर इससे सीधे या परोक्ष तौर पर कोई फायदा होता भी है तो उस पैसे को एक अलग अकाउंट में रखा जाएगा और फिर इस पैसे को इमारत के रखरखाव पर ही खर्च किया जाएगा।

पर्यटन मंत्रालय ने इस योजना के तहत लगभग 100 ऐतिहासिक धरोहरों की सूची तैयार की है और इन्हें green, blue और orange कैटेगरी में बांटा है। इन्हें गोद लेने वाली कंपनियां धरोहर मित्र कही जाएंगी। अबतक कुल 323 आवेदन आ चुके हैं और पहली स्वीकृति लालकिला और गंडीकोटा किले के लिए डालमिया भारत को दी गयी है। अब सवाल उठता है कि इस योजना को लेकर बुद्धिजीवियों और विपक्षी दलों में इतनी हाय तौबा क्यूं मची है? शायद इन लोगों को याद नहीं है कि 2001 में वाजपेयी सरकार ने ताजमहल के संरक्षण और मरम्मत का जिम्मा टाटा समूह को सौंप दिया था। टाटा ने पूरी गंभीरता से दुनिया के नामी वास्तुकारों के देखरेख में ताज के संरक्षण का काम शुरू करवाया, जो यूपीए सरकार के कार्यकाल तक चला। लेकिन सरकारी अधिकारियों के असहोयगात्मक रवैये और गैरजरूरी हस्तक्षेप के कारण करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद टाटा को काम बीच में ही बंद करना पड़ा और सरकारी एजेंसी ASI आजतक यह काम पूरा नहीं कर पायी है। बाकी धरोहरों की हालत कितनी खराब है ये वहां जाने वाले पर्यटक ही बता सकते हैं। इन बुद्धिजीवियों को तो याद भी नहीं होगा कि अंतिम बार वे कब किसी ऐतिहासिक धरोहर के अंदर गये थे। क्या इसी दुर्दशा के लिए इन धरोहरों को सरकार के भरोसे छोड़ देना चाहिए। और इनके रख रखाव, साफ सफाई और सौंदर्यीकरण की सारी जिम्मेदारी क्या सरकार की ही है। यदि व्यावसायिक घराने इनकी जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हैं तो हर्ज क्या है? क्या वे पाकिस्तान से आये हैं? वे भी इसी देश का हिस्सा हैं। यहीं कारोबार कर उन्होंने दौलत कमायी है तो ये उनका सामाजिक उत्तरदायित्व है कि वो जनभागीदारी के तहत आगे आएं और अपने देश के ऐतिहासिक धरोहरों को सजाने संवारने में सरकार की मदद करें। एक बड़ा सामान्य सा सवाल है कि जनकल्याणकारी योजनाएं चलाना सरकार का काम है तो फिर इसमें स्वयंसेवी संस्थाएं क्यों शामिल होती हैं? क्यों सरकार करोड़ों रुपये इन संस्थाओं को अनुदान के रूप में देती है? क्या ऐसा करके सरकार अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही है? शायद नहीं। यही जनभागीदारी है। इतने बड़े देश में बहुत सारे ऐसे काम हैं जिन्हें सरकार अपने सीमित संसाधनों से प्रभावी ढंग से पूरा नहीं कर सकती। इसमें जनता का सहयोग जरूरी है। और एक इकाई के तौर पर देखा जाए तो व्यावसायिक घराने और स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस देश की जनता ही हैं और आम जनता से ज्यादा सक्षम हैं। सोशल मीडिया पर चीख चीखकर सरकार को कोसने वाले ये वही लोग हैं जो आज यदि लालकिला के अंदर जाएं तो उसकी बदहाली पर भी सरकार को गाली देंगे और जब सरकार इसे सजाने संवारने के लिए कुछ सकारात्मक पहल कर रही है तो इसपर भी सरकार को गाली दे रहे हैं। अब इस नकारात्मक सोच के लिए कोई क्या कर सकता है? क्या आपको पता है कि यूरोप के विकसित देशों की खूबसूरत ऐतिहासिक इमारतों और स्मारकों की देखभाल और साज संवार कौन करता है? वहां के व्यावसायिक घराने न की वहां की सरकारें। इसलिए बेवजह के घड़ियाली आंसू बहाना छोड़ें और देश की धरोहरों को सजने संवरने दें। और रोने धोने से कभी फुर्सत मिल जाए तो अपनी खूबसूरत विरासत में भी कभी झांक लिया करें कि वे किस हाल में हैं। ये भी आपकी ही जिम्मेदारी है।

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