अतुल गंगवार
शरत बाबू ने जब देवदास का किरदार रचा होगा तो शायद उन्होंने स्वप्न में भी ये कल्पना नही की होगी कि उनका ये किरदार आने वाली पीढ़ियों को भी प्रभावित करेगा। सुधीर मिश्रा की ताजा पेशकश ‘दास देव’ शरत बाबू के इस अमर किरदार को एक नये रूप में परिभाषित करती है।
कहानी की शुरूआत एक हत्या से होती है और अंत अनेक हत्याओं पर। हर निर्देशक कहानी को अपने तरीके से कहता है। उसके किरदार उसकी कल्पनाओं से गढ़े जाते हैं। किरदारों को गढ़ने में सुधीर मिश्रा काफी हद तक सफल हुए हैं। लेकिन अगर वो ‘दास देव’ को शरत के ‘देवदास’ और शेक्सपीयर के ‘हेमलेट’ से प्रेरित नही बताते तो शायद वो इस तुलना में नही फंसते और ‘दास देव’ का मूल्यांकन एक स्वतंत्र फिल्म के रूप में होता। जो शायद फिल्म के लिए बेहतर होता।
‘दास देव’ एक ऐसी फिल्म है जो दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब है। इसमें वो सारे मसाले हैं जो फिल्म की कामयाबी के लिए ज़रूरी हैं। राहुल भट्ट, रिचा चढ्ढा, अदिति राव हैदरी अपनी भूमिकाओं में जंचते हैं। फिल्म की जान सौरभ शुक्ला हैं जो ‘रेड’ के बाद एक बार फिर राजनेता की भूमिका में नज़र आयें हैं। उन्होंने ‘अवधेश’ के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिया है। ‘रामाश्रय’ के किरदार में विपिन शर्मा भी जमें हैं। छोटी सी भूमिका में अनुराग कश्यप याद रह जाते हैं। फिल्म का संगीत फिल्म के अनुरूप ही है। पर्दे पर आनंद देता है ।
सुधीर मिश्रा ने देवदास के प्रेम में शेक्सपीयर के ‘हेमलेट’ का तड़का लगाया है। इस तड़के ने फिल्म को एक नया आयाम तो दिया है लेकिन शरत बाबू के प्रेम नायक देवदास की हत्या कर दी है। ऐसा लगता है खीर में चीनी की जगह नमक डल गया है। प्रेम, सत्ता को पाने के षडयंत्र, हत्या के इस मायाजाल में प्रेम का रंग सबसे फीका पड़ गया है।
ये महज इत्तेफाक हो सकता है लेकिन ‘दास देव’ का देव, निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देव डी’ के देवदास की तरह दिखता है और इस फिल्म में देव डी के निर्देशक अनुराग कश्यप बतौर अभिनेता फिल्म में एक ऐसे किरदार को जीवंत करते नज़र आते हैं जो परदे पर दिखता तो कुछ ही देर के लिए है लेकिन महसूस पूरी फिल्म में होता है।
‘देव डी’ और ‘दास देव’ में बस इतना फर्क है कि एक मोहब्बत का मारा है, दूसरा पॉलिटिक्स का। बस अगर हम यूं कहें की ‘दास देव’ और शरत के‘देवदास’ के बीच अगर कोई साम्यता है तो फकत किरदारों के नाम की। उसमें भी चंद्रमुखी ‘दास देव’ में चांदनी है।
कहानी में प्रेम और सत्ता को पाने के संघर्ष के साथ, किसानों की भी बात की गयी है। फिल्म में सभी मसालों का प्रयोग किया गया है। ‘दास देव’ ना तो किसी समस्या को ठीक ढंग से उठाती है ना ही वो किसी समाधान की बात करती है। इस मामले में सुधीर मिश्रा थोड़ा कन्फूजिया गये हैं।
कुल मिलाकर ‘दास देव’ एक बार देखी जा सकती है। हां एक बात ओर संजय लीला भंसाली को देवदास के चित्रण के लेकर काफी आलोचना का शिकार होना पड़ा था। लेकिन ‘देव डी’ और ‘दास देव’ के बाद उनकी देवदास ( प्रेम के मामले में) काफी बेहतर लगती है
पांच में से चार स्टार