आकाश अवस्थी
लेखक दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर हैं व यूजीसी-नेट परीक्षा उत्तीर्ण है। बीते ढाई वर्ष से देश के राजनीतिक विषयों के साथ साथ जनजातीय जीवन पर आपका विशेष गहन अध्ययन चिंतन रहा है।
चंद दिनों से माहौल पर माहौल बनाया जा रहा है, जिधर देखो एक ही आंधी की चर्चा है और वो आंधी है प्रियंका गाँधी वाड्रा। कांग्रेस के लोग उनकी तारीफ़ करते हुए नहीं थक रहे, वहीँ प्रियका के आने के बाद बीजेपी के खेमे में भी ज्यादा न सही, फिर भी एक चिंता तो नजर आ ही रही है। बड़े से लेकर स्थानीय नेता तक, राष्ट्रीय प्रवक्ता से लेकर चौपाल पर बैठ कर बीजेपी की तमाम नीतियों को बिना जांचे परखे उसके पक्ष में बोलने वाले भी इस समय एक ही चिंता में हैं कि क्या प्रियंका कांग्रेस की इस डूबती नाव को सहारा दे पाएगीं?
प्रियंका के राजनीतिक करियर पर नजर डालें तो प्रियंका ने कभी रायबरेली और अमेठी से बाहर निकलने की कोशिश नहीं की और न ही कभी कांग्रेस नेतृत्व के सामने कभी ऐसा अवसर आया, जब वो प्रियंका पर सक्रिय राजनीति में आने का दबाव बनातीं। लेकिन जिस तरह लोकसभा चुनाव से ठीक पहले प्रियंका को सीधे महासचिव के पद पर डायरेक्ट एंट्री दी गयी । यह एंट्री ठीक वैसी ही है, जैसे अचानक राहुल गाँधी को 2007 में महासचिव बनाया गया था। उस समय वह NSUI एवं यूथ कांग्रेस के प्रभारी महासचिव थे। लेकिन तब और अब में अन्तर है, वो ये कि उस समय राहुल को ज़माने की तैयारी की जा रही थी जिसके लिए 2004 में सोनिया गाँधी की जगह उन्हें अमेठी से चुनाव भी लड़ाया गया था। उस चुनाव को तब भी प्रियंका ने ही मैनेज किया था। जबकि अब कांग्रेस की हालत ऐसी है कि उसके शीर्ष नेतृत्व को ही अपनी सीट खतरे में दिखाई दे रही है। तब कांग्रेस के पक्ष में माहौल था, आज मामला उलट है। इस तरह की एंट्री ने राजनैतिक गलियारों में एक नई हवा को जन्म दे दिया, वो ये कि क्या कांग्रेस को भी राहुल पर भरोसा नहीं रहा या सोनिया के बाद राहुल को सहारा देने के लिए गाँधी परिवार का कोई सदस्य न होना भी प्रियका की एंट्री का बड़ा कारण है ।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बहुत बड़ा जनाधार था। एक तरफ कांग्रेस के पास आजादी को भुनाने के लिए लोगों का वरदहस्त था। तब से ऊँचे तबके के ब्राह्मण और ठाकुर सदैव उसके पक्ष में वोट करते रहे, वहीँ मुसलमान किसी अन्य विकल्प के न होने के कारण मजबूरी वश कांग्रेस के साथ थे। धीरे धीरे स्थितियां बदलीं। इंदिरा के समय जब पूरा देश खिलाफ था तब जाकर ही इंदिरा को रायबरेली से हार का सामना करना पड़ा था। अब शायद कांग्रेस अपने इस मास्टर स्ट्रोक से वही परम्परागत वोट हासिल करने की कोशिश में है ।
कांगेस ने पिछले साढ़े चार साल में काफी हद तक अपनी छवि बदलने की कोशिश की है। जहाँ वह मुस्लिम तुष्टीकरण की जगह अब सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ आई है राहुल खुद को जनेऊ धारक कहते हुए दत्तात्रेय ब्राह्मण होने का दावा करते दिखाई देते हैं। इस कड़ी में प्रियंका का आना, कहीं न कहीं इस धार को तेज करने का काम करेगा, क्योंकि प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया है। जब जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हारी, तब तब प्रियंका को लाने की मांग तेज होती रही। इस कारण न जाने कितने नेताओं को पार्टी के कहर का सामना करना पड़ा।
प्रियंका के सक्रिय तौर पर राजनीति में आने से कांग्रेस को नफे के साथ नुकसान भी हो सकता है। गाँधी परिवार के नजरिये से देखें तो हमेशा से सत्ता का केंद्र गांधी परिवार में ही रहा, मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी हालत यही थी। लेकिन जिस दौर में राहुल का उभार हुआ, उससे काफी पहले से ही प्रियंका का पार्टी में दबदबा काफी बढ़ चुका था। इसका संकेतक ये भी था कि 2014 तक लोग राहुल से ज्यादा अपना ट्रान्सफर करवाने या रुकवाने के लिए राहुल की बजाय प्रियंका के पास जाना पसंद करते थे। तो इस तरह प्रियंका के सक्रिय होते ही पार्टी दो केन्द्रों में भी विभाजित भी हो सकती है। क्यूंकि पार्टी में भी लोगों को राहुल से ज्यादा सम्भावनाएं प्रियंका में नजर आती है। दूसरा अगर देश में कांग्रेस प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और गलती से भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सीटें बढ़ीं तो राहुल की कुर्सी का डावांडोल होना तय माना जा रहा है।
वहीं कुछ राजनैतिक पंडित प्रियंका के राजनीति में आने को आत्महत्या मानते है, क्योंकि अगर ना तो देश और ना ही उत्तर प्रदेश में स्थिति सुधरी, तो फिर प्रियंका और राहुल की संभावनाओं में बहुत अधिक अंतर नहीं होगा। इसके बावजूद जिस स्थिति में इस समय कांग्रेस है उससे उबरने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आता। इसलिए यह भी हो सकता है कि राहुल के रास्ते में आने वाले प्रियंका नाम के कांटे को निकालने के लिए इस मौके को चुना गया हो। बाकी तो वक्त बतायेगा कि प्रियंका की नाव, इस मोदी रूपी भंवर में फंसेगी या भंवर को पार कर जाएगी । लेकिन उनकी दादी इंदिरा, प्रियंका के प्रति कितनी आशावान थी, यह उनके इस कथन से साफ होता है, “जब मेरी पोती राजनीति में आएगी, तभी लोग मुझे भूल जायेंगे।”