अभी तक की परिस्थितियों में यह तय है कि बिहार विधानसभा चुनाव तय समय पर ही होंगे। कार्यक्रम में किसी अप्रत्याशित कारण से बदलाव नहीं हुआ, तो विधानसभा चुनाव की अधिसूचना अगले महीने यानी सितंबर के दूसरे या तीसरे हफ्ते में जारी हो जाएगी। वर्ष 2015 में चुनाव पांच चरणों में कराए गए थे, लेकिन इस बार हो सकता है कि कुछ चरण और बढ़ाए जाएं, क्योंकि कोरोना और बाढ़ की वजह से उत्पन्न हुए हालात से भी निपटना होगा। चुनाव आगे बढ़ाने की मांग कर रही विपक्षी आरजेडी और सत्ता पक्ष से संबद्ध एलजेपी ने भी चुनाव आयोग का मूड भांप कर तैयारियां तेज़ कर दी हैं।
अभी तक के विश्लेषणों में माना जा रहा है कि नीतीश कुमार सरकार के प्रदर्शन से बिहार का आम वोटर ख़फ़ा है। वैसे भी 15 साल की स्वाभाविक एंटी इंकंबेंसी का माहौल है ही। ऐसे में बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि सत्तारूढ़ जेडीयू के प्रति बने नकारात्मक माहौल का फ़ायदा क्या विपक्ष को मिलेगी या फिर सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल बीजेपी को? यह अभी थोड़ा टेढ़ा सवाल है, लेकिन जैसे-जैसे चुनावी तारीख़ें सामने आएंगी, स्थितियां और स्पष्ट होती जाएंगी। अभी के समय में एक बात और ध्यान खींचती है कि पक्ष और विपक्ष के गठबंधनों की सूरत स्पष्ट नहीं हुई है। एलजेपी लगातार जेडीयू को निशाने पर ले रही है, तो जेडीयू भी पलटवार कर रही है। बीजेपी सधे हुए अंदाज़ में बयान दे रही है। बीजेपी प्रभारी भूपेंद्र यादव फिर से स्पष्ट कर चुके हैं कि उनकी पार्टी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान कर चुनाव लड़ेगी। फिर भी गठबंधन की स्पष्ट सूरत अभी उभर नहीं पा रही है। यह भी संभव है कि महाराष्ट्र के सियासी मॉडल को ध्यान में रखते हुए बीजेपी पोस्ट पोल हालात को ध्यान में रख रही हो। जो भी हो, इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में समीकरण कुछ ज़्यादा ही उलझे हुए नज़र आ रहे हैं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी हालात का अंदाज़ा है, इसलिए उन्होंने चुनाव के ऐन पहले लोगों को ख़ुश करने की क़वायद शुरू कर दी है। हाल ही में कैबिनेट की मीटिंग में बिहार के साढ़े तीन लाख कॉन्ट्रेक्ट शिक्षकों की अरसे से लंबित पड़ी कई महत्वपूर्ण मांगें मान ली गई हैं। इनमें वेतन बढ़ोतरी और मनचाही जगह पर ट्रांसफ़र से जुड़ी मांगें भी शामिल हैं। कॉन्ट्रेक्ट टीचर की मृत्यु के बाद परिवार के किसी सदस्य को अनुकंपा के आधार पर नौकरी देने की मांग भी बिहार सरकार ने मान ली है। माना जा रहा है कि इस फ़ैसले से नीतीश सरकार ने क़रीब 13 लाख वोटरों को साधने का प्रयास किया है।
बिहार में चुनाव भले ही समय पर कराए जाएं, लेकिन कोरोना और बाढ़ की विभीषिका की वजह से चुनाव आयोग को इसके लिए अतिरिक्त इंतज़ाम करने पड़ेंगे। पोलिंग बूथ की संख्या 106000 से ज़्यादा बढ़ाने की तैयारी हो चुकी है, जिससे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराया जा सके। लेकिन बाढ़ की वजह से बने हालात में ग्रामीण इलाक़ों में प्रभावी वोटिंग हो पाएगी, यह एक बड़ा प्रश्न है। वर्ष 2015 के मुक़ाबले इस बार बिहार में बाढ़ का प्रकोप बहुत ज़्यादा है। अभी के आंकड़े के हिसाब से बिहार की क़रीब एक करोड़ आबादी बाढ़ की चपेट में है। अभी बारिश चल ही रही है, ऐसे में दिक्कत और बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। हालात और बिगड़ते हैं, तो ग्रामीण इलाक़ों में चुनाव कैसे संपन्न हो पाएंगे, यह चुनाव आयोग को सोचना होगा। बिहार में सवा सात करोड़ वोटर हैं।
ग्रामीण इलाक़ों के वोटर इस समय बहुत परेशान हैं। रहने, खाने-पीने जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उनसे छिन गई हैं। उनके मवेशी मर गए हैं। ऐसे में उनके लिए वोटिंग के इंतज़ाम से ज़्यादा ज़रूरी है कि उन्हें जीवन की बुनियादी ज़रूरतें मुहैया कराई जाएं। बड़ी आबादी अगर जीवन के लिए जूझ रही हो, तो चुनाव बहुत ज़रूरी उपक्रम नहीं हो सकता। लोकतंत्र असल में लोक का तंत्र है और अगर लोक अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हो, तो फिर चुनाव टाले जाने पर विचार किया ही जाना चाहिए। हो सकता है कि चुनाव आयोग समय पर चुनाव कराने की तैयारी में पूरी तरह सक्षम हो, लेकिन जिनके लिए चुनाव कराया जाना है, वे बूथ तक पहुंचने की स्थिति में ही नहीं हों, तो फिर इसका क्या मतलब होगा? ऐसे में चुनाव आयोग को वैकल्पिक कार्ययोजना को भी ध्यान में रखना चाहिए।