भारत में यूं तो फिल्में 1912 से बन रहीं थी। 1931 में मूक फिल्मों को आलमआरा के रिलीज़ होते ही आवाज़ भी मिल गयी थी। लेकिन भारत की पहली भोजपुरी फिल्म को बनने में 50 साल लग गये। जी हां भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मैय्या तोहे पियरी चढयबो’ 1962 में रिलीज हुयी थी।
विधवा पुनर्विवाह पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन कुंदन कुमार ने किया था और कुमकुम, असीम कुमार और नासिर हुसैन ने मुख्य किरदार निभाया था। शैलेन्द्रके लिखे गीतों को संगीत से सजाया था चित्रगुप्त ने और आवाज़ थी लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी की।
भोजपुरी फिल्म निर्माण के बारे में सबसे पहले अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दनवाई ने सोचा था। मूलतः वाराणसी की रहने वाली जद्दनवाई ने इस संदर्भ में वाराणसी के ही प्रख्यात हिन्दी फिल्मों के खलनायक कन्हैयालाल से सम्पर्क किया ।कन्हैयालाल ने अपने मित्र और हिन्दी फिल्मों के चरित्र अभिनेता व लेखक नासिर हुसैन को इसके लिए प्रेरित किया ।
1950 में एक फंक्शन के दौरान नासिर हुसैन साहब की मुलाकात प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी से हुयी उन्होंने हुसैन साहब से कहा कि आप भोजपुरी में फिल्म बनाइए।
राजेन्द्र बाबू से प्रेरणा लेकर नासिर हुसैन ने भोजपुरी में एक अच्छी पटकथा तैयार की । पटकथा इतनी सशक्त और दमदार बनी की अनेक हिन्दी फिल्मकारों ने इसे हिन्दी में भी फिल्माने की पेशकश की थी । लाख प्रलोभन देने के बावजूद नासिर हुसैन से वह पटकथा प्रख्यात फिल्मकार विमल राय भी हासिल नहीं कर सके ।
अब सबसे बड़ी समस्या पैसे की आन पड़ी। एक दिन उनकी मुलाकात आरा के व्यवसायी विश्वनाथ शाहाबादी से हो गई जिनके पास अपना स्टूडियो और सिनेमा हॉल था। शाहाबादी फिल्म में 1.50 लाख रुपये लगाने को तैय्यार हो गए। फिल्म बननी शुरू हो गयी। फिल्म का मुहूर्त शॉट पटना के शहीद स्मारक में हुआ और फिल्म का निर्माण शुरू हो गया। फिल्म के ज्यादातर हिस्से बिहटा में फिल्माए गए थे। पटना के गोलघर और आरा के रेलवे स्टेशन में भी दृश्य फिल्माए गए।
हालांकि निर्माण के दौरान फिल्म का बजट बढ़ गया। 1.50 की जगह 5 लाख फिल्म की लागत हो गयी लेकिन एक बार आगे बढ़ने के बाद विश्वनाथ जी पीछे नही हटे। एक साल में निर्मल पिक्चर्स के बैनर तले भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढइबो’ फिल्म बनकर तैयार हो गई और1962 फरवरी में वाराणसी के प्रकाश टाकीज में प्रदर्शित हुई ।
अपने मधुर और कर्णप्रिय गीत-संगीत और सशक्त पटकथा पर आधारित कलाकारों केअभिनय की बदौलत पाँच लाख की लागत से बनी इस फिल्म ने नौ लाख का व्यवसाय करप्रादेशिक भाषा की फिल्म के लिए कीर्तिमान स्थापित किया । वहीं हिन्दी फिल्म उद्योग को चुनौती भी दे डाली । फिल्म में भोजपुरी भाषी क्षेत्रों की कठिनाइयों और सामाजिक परिवेश को बड़ी मार्मिकता से उजागर किया गया था ।
यह फिल्म जब पटना के वीणा टाकीज में 22 फरवरी 1963 को प्रदर्शित हुई तो सड़कों पर बैलगाड़ियों की लम्बी कतारें लग गई थीं । टिकट नहीं मिलने पर लोग पटना में रात बिता कर दूसरे दिन फिल्म देख कर ही गाँव लौटते थे । सपरिवार फिल्म देखना तब किसी उत्सव सा होता था । फिल्म का संगीत और गीत हर गली- मुहल्ले और गाँव के चौराहों पर गूंजने लगा । फिल्म ने कलकत्ता में भी सिल्वर जुबली मनाई थी । इसी कारण फिल्म से जुड़े कई नवोदित कलाकार मुंबई फिल्म उद्योग के स्थापित कलाकार हो गए । जिस में रामायण तिवारी, भगवान सिन्हा, मदन सिन्हा, गीतकार एसएस बिहारी, छायाकार द्रोणाचार्य आदि प्रमुख थे ।