भोजपुरी सिनेमा यानी फूहड़ सिनेमा, द्विअर्थी संवादों वाला सिनेमा, मसालेदार सिनेमा, परिवार के साथ बैठ कर न देखा जाने वाला सिनेमा…! पिछले कुछ समय में भोजपुरी फिल्मों की भले ही यह छवि बनी हो लेकिन सच यह है कि कोई वक्त था जब भोजपुरी सिनेमा बेहद समृद्ध और संपन्न था। बहुत कम लोग यह बात जानते होंगे कि भोजपुरी सिनेमा की शुरूआत का श्रेय भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के उस आह्वान को जाता है जो उन्होंने मुंबई फिल्मोद्योग के सामने किया था और जिससे प्रेरित होकर हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता नजीर हुसैन ने पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैइबो’ बनाने जैसा भगीरथ काम अंजाम दिया था।
बीते छह दशकों में भोजपुरी सिनेमा में किस किस्म के बदलाव आए, किन संकरे, पथरीले और अंधेरे रास्तों से होकर यह सिनेमा गुजरा, किस तरह से इसकी तरक्की हुई और फिर कैसे यह पतन की राह पर चल पड़ा, कैसे बाजार ने इस सिनेमा में अपनी घुसपैठ की और भोजपुरी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल न करने से इस पर कैसा असर पड़ा। ऐसे ढेरों विषयों को अपने में समेटे ‘भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा’ नाम की यह किताब न सिर्फ पाठकों की जिज्ञासा को शांत करती है बल्कि यह उम्मीद भी जगाती है कि यदि भोजपुरी सिनेमा से जुड़े लोग जरा-सा संभल जाएं तो एक बार फिर से इस सिनेमा के अच्छे दिन आ सकते हैं। दिल्ली के प्रभात प्रकाशन से आई इस किताब में लेखक रविराज पटेल का इसे लिखने के लिए किया गया शोध और संघर्ष साफ झलकता है और यही वजह है कि भोजपुरी सिनेमा के अब तक के सफर व मौजूदा दशा पर यह एक उल्लेखनीय दस्तावेज बन कर सामने आती है।