मोहम्मद अलीम संस्कृति पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकार, नाटकाकार, पटकथा लेखक एवं पत्रकार हैं। अभी हाल ही में इन्होंने महाकाव्य रामायण पर आधारित उर्दू में एक मंचीय नाटक लिखा है जिसका नाम है, इमाम-ए-हिंदः राम
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अभी चंद दिनों पहले ही हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश में लोकसभा के चुनाव संपन्न हुए हैं जिसमें आशा के अनुरूप वर्तमान प्रधानमंत्री शैख हसीना को काफी बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। उन्हें तीसरी बार वहां के शासन की बागडोर संभालने का सुनहरा मौका नसीब हुआ है।
मगर ऐसा नहीं है कि बांग्लादेश का चुनाव बिना किसी कड़वाहट और रूकावट के सुगमता के साथ संपन्न हो गया। 50 से अधिक बाहरी आबजर्वर की कड़ी नजर के बावजूद चुनावी हिंसा में 20 के करीब लोग मारे गए। यह भी शिकायतें मिलीं कि बड़े पैमाने पर धांधलियां हुई हैं और बूथ कैपचरिंग और गलत वोटिंग आम सी बात थी। लेकिन प्रश्न यह भी उठता है कि जब भी कहीं पार्लिमयानी चुनाव होता है तो विरोधी पार्टियों की ओर से ऐसे इल्जामात तो लगाए ही जाते हैं और जैसा कि यह सामान्य सी बात हो कर रह गई है। लेकिन एक बात यह भी है कि इस आधुनिक युग में जहां पल पल की खबर दुनिया को सकेंडों में मिलती रहती है और तक्नीकी दक्षता भी ऐसी कि परिंदा भी सरकार की मंशा के बिना कहीं पर पर मारना चाहे तो न मार सके, ऐसी स्थिति में सिरे से पूरी चुनावी प्रक्रिया को गलत और धांधली से भरा करार देना ज्यादती होगी। हां, इस तरह की धांधलियां चंद सीटों को तो प्रभावित कर सकती हैं मगर एक तिहाई से अधिक बहुमत हासिल करने वाले परिणाम को सिरे से गलत भी करार नहीं दिया जा सकता। हालांकि अमेरीका एवं कुछ अन्य देशों ने चुनाव परिणाम एवं उससे जुड़ी धांधलियों पर अपनी विपरीत राय व्यक्त की है मगर किसी ने यह नहीं कहा है कि सिरे से इस चुनाव को रद्द कर के निए सिरे से चुनाव कराया जाए। हालांकि ऐसी परिस्थिति में जब सब कुछ गलत हो रहा हो तो दुनिया के अन्य देशों से तो विरोध का स्वर उठना लाजमी है मगर ऐसा हुआ नहीं और शैख हसीना को मुबारकबाद देने वालों का तांता लगा हुआ है जिसमें हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं।
मेरे लिए इस चुनाव का अधिक महत्व इस दृष्टिकोण से है कि यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले केवल डिक्टेटरशिप में विश्वास नहीं करते और न ही ऐसी सत्ता को आंख मूंद कर समर्थन ही देते हैं। जहां जहां तानाशाहों ने कब्जा जमा रखा है और वहां बोलने और लिखने की स्वतंत्रता नहीं है, वहां निरंकुश तानाशाहों ने वह आतंक मचा रखा है कि आम जनता अपनी जान की सलामती की खातिर चुप रहने में ही अपनी आफीयत समझती है। अभी हाल ही में सऊदी पत्रकार जमाल खसोजगी के साथ तुर्की में जो वाक्या पेश आया वह सब के सामने है और रोज कोई न कोई खबर वहां उसे उनकी मौत की जांच के संबंध में जारी होती रहती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर मुस्लिम देशों में लोकतंत्र को पनपने का मौका क्यों नहीं मिला हालांकि इस्लाम की मूल शिक्षाओं में इस बात को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है कि तुम अपने सारे कार्य आपस की सहमति एवं सलाह मश्विरे से किया करो। मश्विरे में बरकत है।
मगर दुभार्ग्य से ऐसा व्यावहारिक तौर पर होता कहीं दिखाई नहीं देता। अलबत्ता बांग्लादेश, पाकिस्तान, तुर्की और त्युनेशिया जैसे देश कुछ उम्मीदें जरूर जगाते हैं। मिस्र में जरूर हुस्ने मुबारक के तानाशाही शासन के बाद चुनाव हुए थे और मुर्सी वहां के निर्वाचित राष्ट्रपति बने थे मगर कुछ ही दिनों में बड़े निरंकुश ढ़ंग से उनको सत्ता से बेदखल कर के वहां के फौजी सिप्पेसालारों ने हमेशा के लिए जेल की काल कोठरी में अपनी मौत आप मरने के लिए छोड़ दिया।
तुर्की में भी वहां के वर्तमान राष्ट्रपति रजब तैय्यब अर्दुवान ने अपने विरोधियों को उनके तख्ता पलट की साजिश के आरोप में लाखों की संख्या में जेलों में डाल दिया है।
इससे से साबित होता है कि मुस्लिम देशों में बांग्लादेश ही शायद एक वाहिद ऐसा देश है जहां लोकतंत्र की जड़ें सबसे गहरी हैं और उसके भविष्य में और मजबूत होने की उम्मीदें भी हैं। पाकिस्तान के हालिया चुनाव ने और मौजूदा दौर की चुनी हुई सरकारों ने भी कुछ उम्मीद की किरण जगाई है मगर वहां फौजी जेनरलों का वर्चवस्व इस कदर ज्यादा है कि यह खतरा हमेशा बना रहता है कि किसी भी वक्त वहां की चुनी हुई सरकार को कोई न कोई आरोप लगा कर बर्खास्त किया जा सकता है।
मैं चाहता हूं कि भारत एक अच्छे पड़ोसी के तौर पर बांग्लादेश में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत बनाने में अपना महत्वपूर्ण रोल अदा करे और इसे ऐसा करना भी चाहिए। क्योंकि अगर यह देश भी पाकिस्तान या अन्य इस्लामी देशों की तरह उनके निरंकुश तानाशाहों के हाथ में चला गया तो हमारी सलामती के लिए यह बहुत बड़ा खतरा साबित होगा।
मुसलमानों को भी चाहिए कि निरंकुश शासक, वह चाहे जहां कहीं भी हो और जिस किसी मुस्लिम देश की नुमाइंदगी करते हों, उनकी तानशाही का खुल कर विरोध करें। लोकतंत्र में भले ही हजार खामियां सही, मगर आम जनता के हित में हमेशा चुनी हुई सरकारें ही कारगर साबित होती हैं। भारत इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।