ब्रांडेड दवाओं का मुनाफे का खेल-जानबूझकर जेनरिक दवाएं नहीं लिखते हैं डॉक्टर
आदित्य भारद्वाज
बोल बिंदास नई दिल्ली,
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जेनरिक दवाएं लिखने की अपील के बाद डॉक्टरों ने जेनरिक दवाओं की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठा दिया है। बहरहाल मुद्दा यह है कि आखिर क्यों डॉक्टर जेनरिक दवाइयां लिखना नहीं चाहते। दरअसल यहां खेल मुनाफे का है। नाम न छापने की शर्त पर एक डॉक्टर कहते हैं कि डॉक्टर ने पर्ची लिख दी तो दवाई तो खरीदनी ही है, भले ही कितनी महंगी क्यों न हो? ऐसा क्यों? क्योंकि पर्ची पर डॉक्टर ने नुस्खा या दवाई का जो नाम लिखा है वह दवा कुछ गिनी-चुनी दुकानों पर ही मिलती है। यही है दवाओं की ब्रांडिंग का नियोजित खेल।
दरअसल जो दवा आपको महज कुछ हर रुपयों में मिल सकती है कि आप उसी दवा के कई गुना दाम चुकाकर आते हैं, क्योंकि हर व्यक्ति का यही मानना होता है कि डॉक्टर ने जो दवा लिखी वह ही अच्छी है। अधिकांश लोग जानते ही नहीं कि एक दवा कई नामों से बाजार में बिकती है। आम आदमी को दवाओं के साल्ट पता नहीं होते।
भारत में बेची जाने वाली 90 प्रतिशत से ज्यादा दवाएं जेनरिक हैं, जेनरिक यानी जिन दवाओं का पेटेंट खत्म हो चुका है। यानी वे दवाएं जिन्हें बड़ी- बड़ी दवा कंपनियां अपना ब्रांड कहकर अलग-अलग नामों से बनाकर बेच रही हैं। उनके साल्ट यानी मिश्रण बहुत साधारण हैं। यानी उन साल्टों की दवाओं को यदि उनके जेनरिक नाम यानी असली नाम से बेचा जाए तो वे बड़े सस्ते हैं लेकिन आप और हम सस्ती मिल सकने वाली दवाइयों को ब्रांडेड दवाओं के नाम पर खरीदकर लुट रहे हैं।
दवा एक नाम अनेक
एनपीपीए (नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी) के अनुसार देश में अंग्रेजी दवाओं का वार्षिक कारोबार लगभग 1.30 हजार करोड़ रुपए का है। उदाहरण के तौर पर सिट्रीजिन एक एंटी एलर्जिक दवा है। इसे बाजार में दर्जनभर नामों जैसे, सिट्राविन, सिट्रोसिन, एलरिड, सिटजिन आदि से बेचा जाता है। प्रत्येक के दाम अलग- अलग हैं क्योंकि कंपनियां अलग-अलग हैं। सिट्रीजिन का असल दाम तीन रुपए का एक पत्ता है जबकि बाजार में इसे 20 रुपए तक बेचा जाता है क्योंकि अलग-अलग दवा कंपनियों ने अपने-अपने नाम से एमआरपी (खुदरा मूल्य) तय किया होता है।
नहीं होता मानकों का पालन
ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 के तय मानकों के अनुसार ही बाजार में दवाइयां बेची जानी चाहिए। इसमें प्रावधान है कि यदि कोई दवा जेनरिक है तो उसके मूल साल्ट नाम को बड़े अक्षरों में दवा के पत्ते पर लिखकर बेचा जाना चाहिए, भले ही वह दवा किसी भी कंपनी ने क्यों न बनाई हो। वहीं दवा कंपनियां बिल्कुल इसका उलट करती हैं दवा का जो साल्ट होता है यानी जो उसका जेनरिक नाम होता है, वह छोटे अक्षरों में लिखा जाता है। उस दवा को कंपनियां दूसरे नाम से ब्रांड बना देती हैं।
सरकार बनाए नियम तो रुक सकता है खेल
यदि सरकार ऐसी व्यवसथा करे कि दवा पेटेंट फ्री होने के बाद उसे जेनरिक नाम से बेचा जाए तो दवाओं के नाम पर खेले जा रहे ब्रांडेड खेल पर रोक लगाई जा सकती है। इसके लिए सरकार को दवा मूल्य निर्धारण नीति को भी सही ढंग से निर्धारित करने की जरूरत है।
विदेशों में है जेनरिक दवाएं लिखने की व्यवस्था
यदि आप इंग्लैंड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस जर्मनी जैसे विकसित देशों में जाकर देखेंगे तो आपको पता लगेगा कि 80 प्रतिशत से ज्यादा दवाइयों जेनरिक दवाओं की पर्ची डॉक्टर लिखते हैं। वहां डॉक्टर मेडिकल काउंसिल द्वारा तय किए गए मानकों के अनुसार प्रैक्टिस कर सकते हैं। वहां नियम कड़े हैं। अगर डॉक्टर नियम तोड़ता है तो उसका चिकित्सकीय लाइसेंस तक रद्द कर दिया जाता है।
पिछले 20 वर्षों में नहीं हुआ कोई नया शोध
भारत में पिछले 20 वर्ष में किसी नई दवा को लेकर शोध नहीं हुआ है। भारत में जो दवाएं बेची जा रही हैं उन पर किसी का पेटेंट नहीं है। ऐसे में कानून को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर सिप्रोबिड एक साधारण-सी एंटीबॉयोटिक है जिसका मूल सॉल्ट नाम सिप्रोफॉलोक्सिन है। यही दवा हजारों कंपनियां बना रही हैं, किसी ने सिप्रोसिड नाम रखा है तो किसी ने सिप्रोविन। देश में फार्मेसी एक्ट 1940 को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। महाराष्ट्र और केरल में यह सख्ती से लागू है। इस कारण वहां बिना डॉक्टर की पर्ची के आपको कोई दवा नहीं मिलती। यदि इसे सख्ती से लागू किया जाए तो काफी हद तक दवाओं की कालाबाजारी को रोका जा सकता है।
महंगे इलाज बढ़ा रहा गरीबी
2008 में रिसर्च एजेंसी अर्नेस्ट एंड यंग व फिक्की (भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ) के सर्वे में यह बात सामने आई थी कि स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर होने वाले खर्च के कारण भारत की आबादी में 3 फीसद लोग हर साल गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले कुल खर्च का 72 प्रतिशत केवल दवाइयों पर खर्च होता है। सरकार को चाहिए कि यदि वह दवाओं के मानकों के साथ उनके दामों को भी तय करे। 1990 से पहले देश में एमआरपी का मतलब होता था मिनिमम रिटेल प्राइस लेकिन बाजारीकरण के चलते इसका अर्थ हो गया मैक्सिमम रिटेल प्राइज।
क्या है जेनरिक दवाइयां
यदि आसान शब्दों में समझा जाए तो जेनरिक दवाइयां वह हैं जिन पर किसी कंपनी का पेटेंट नहीं है। उदाहरण के तौर पर यदि किसी एक कंपनी ने किसी दवा की खोज की तो उस दवा के शोध व बनाने में लगे खर्च को निकालने के लिए वह कंपनी उस दवाई का पेटेंट कराती है, ताकि कंपनी द्वारा किया गया खर्च बाजार से वसूल सके। अलग-अलग देशों में पेटेंट के लिए समय सीमा अलग-अलग है भारत में ज्यादा से ज्यादा 20 वर्ष की अवधि तक किसी दवा को पेटेंट कराया जा सकता है। पेटेंट की समय सीमा खत्म होने के बाद दवाई पर किसी कंपनी का एकाधिकार नहीं रहता। तब कोई भी कंपनी उस दवा के मूल साल्ट नाम के साथ उसे बना सकती है। पेटेंट खत्म होने के बाद सभी दवाएं जेनरिक की श्रेणी में आ जाती हैं। इस कारण दवाई सस्ती हो जाती है, लेकिन कंपनियां दोबारा से उन दवाइयों को अपना ब्रांड बनाकर बेचती है। जबकि भारत में बेचे जाने वाली 90 प्रतिशत से ज्यादा दवाइयां जेनरिक हैं यानी उन पर किसी दवा कंपनी का पेटेंट
दवा एक, नाम अनेक दाम अलग अलग
डाइक्लोफेनक सोडियम और पैरासेटामल साल्ट से बनने वाली दवाएं सिर दर्द, बदन दर्द में दी जाती हैं। डाइक्लोफेनक 100 एमजी की टेबलेट के एक पत्ते का मूल्य 5.75 रुपए है। यानी एक गोली लगभग 50 पैसे की मिलती है। जबकि ब्रांड में सेरेडिक नाम से यह 83 रुपए व डाइक्लोजाइम नाम से 64 रुपए में मिलती है। आई ब्रूफिन 400 एमजी टेबलेट के पत्ते का मूल्य 12.97 रुपए है। जबकि ब्रांड में यह कॉम्बिफेलेम नाम से 23 रुपए में मिलती है। एजेन्थ्रोमाइसिन 500 एमजी एक एंटीबॉयोटिक दवा है जिसके पत्ते का सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य 81.5 रुपए है। जबकि ब्रांड में एजीथ्रॉल नाम से इसका मूल्य 118 है। एमोक्सोसाइलिन 500 एमजी दवा के एक पत्ते का मूल्य 21.5 रुपए है। जबकि ब्रांड में मोक्स नाम से इसका मूल्य 105, नोवामोक्स नाम से 57, एमपोक्सिन नाम से 57 रुपए है। सिट्रीजिन सबसे साधारण एंटी एलर्जिक है जो अमूमन डॉक्टर दूसरी दवाइयों के साथ मरीज को लेने के लिए लिखते हैं। इस दवा की दस गोलियों का पत्ता 3 रुपए का है। जबकि इसे ब्रांड में सिटजिन नाम से इसे 21 रुपए, एलसेट नाम से 30 रुपए तक में बेचा जाता है। ऐसी हजारों दवाएं हैं जो लोगों को सस्ती मिल सकती हैं, लेकिन दवा कंपनियां ब्रांडिंग के खेल में लोगों को उलझाकर मुनाफा कमा रही हैं। कंपनी से सीएनफ एजेंट, वहां से डिस्ट्रीब्यूटर और फिर वहां से रिटेलर के पास पहुंचते-पहुंचते जब आम आदमी के हाथ में दवा पहुंचती तो दाम कई गुना बढ़ चुका है।