बिहार की राजनीति में कितना असर डालती है जाति आधारित टिकट व्यवस्था – सच्चिदा नन्द द्विवेदी

सच्चिदा नन्द द्विवेदी

बिहार का चुनाव हो और आप विकास के मुद्दे पर जीतने की उम्मीद करे ये अभी भी दूर की कौड़ी है. बात भले ही हर दल सुशासन, सामाजिक न्याय, विकास की करता है पर जब प्रत्याशी घोषित करने की बारी आती है तो हर दल को विधानसभा क्षेत्र का जातीय और धार्मिक समीकरण याद आने लगता है.

बिहार में इस बार 15 साल बनाम 15 साल का मुद्दा जोरों पर है पर एक बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार अभी भी जिस जातीय हिंसा में नब्बे के दशक में झोंका गया था उससे अभी तक उबर नहीं पाया है. 1990 में जब लालू यादव की सरकार पहली बार बनी थी उस वक़्त देश आरक्षण की आग में उबल कर बमुश्किल संभलने  की कोशिश कर रहा था उस वक़्त लालू यादव ने भूरा बाल साफ़ करने का नारा दिया था यानी भूमिहार राजपूत ब्राह्मण लाला एक तरफ और पिछड़ा अति पिछड़ा के साथ MY यानी मुस्लिम-यादव समीकरण बनाया जिसके बूते उन्होंने और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने 15 साल तक एकछत्र राज किया.

2005 तक आते आते तमान तरह के घोटालों और अपराध से तंग आकर जनता ने परिवर्तन की राह पकड़ी और उन्हें एक साफ़ सुथरी छवि वाले नीतीश कुमार में आशा की किरण दिखाई दी. फरबरी 2005 में हुए चुनावों में हालांकि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला इसके बाद दोबारा चुनावों में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था.

बूेहतर बिहार के लिए अपनी पसंद के उम्मीदवार को चुनिए

 बिहार में 243 विधानसभा सीट के लिए फरवरी 2005 में हुए चुनाव में किसी दल को सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं मिला. गठबंधन की सरकार बनाने को बेताब राजद को इस बार सत्ता की चाभी नहीं मिली. फिर अक्टूबर 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में जदयू व भाजपा गठबंधन को भारी सफलता मिली. फरवरी में जहां राजद के सत्ता में पुन: वापसी के कयास लगाए जा रहे थे वहीं आठ महीने के अंतराल पर हुए दोबारा चुनाव में बिहार की राजनीतिक परिस्थिति पूरी तरह बदल गयी. फरवरी में हुए चुनाव में राजद को जहां 75 सीटें मिली थी वहीं अक्टूबर में यह घटकर 54 हो गयी। जदयू को 55 की जगह 88 व भाजपा को 37 के स्थान पर 55 सीटें मिली। इसी प्रकार कांग्रेस को 10 के स्थान पर नौ तो लोक जनशक्ति पार्टी को 29 की जगह मात्र 10 सीटें प्राप्त हुई.

2005 में हुए विधान सभा चुनाव का जनमत था तो तत्कालीन जाति आधारित और अपराध केन्द्रित व्यवस्था को समाप्त करने के लिए था लेकिन अब 15 साल बाद भी इसमें बहुत ज्यादा परिवर्तन नजर नहीं आता. अगर थोड़ा बहुत कानून व्यवस्था के मुद्दे को छोड़ दें तो अभी भी बिहार की राजनीति का केंद्र जाति आधारित चुनाव ही है.

8 अक्टूबर को बिहार में पहले दौर के मतदान के नामांकन प्रक्रिया पूर्ण हो गई है इसके साथ ही लगभग सभी दलों ने अपने अपने प्रत्याशियों की घोषणा भी कर दी है. अगर एक नजर सभी दलों के प्रत्याशियों पर डाली जाए तो साफ़ हो जाता है किस प्रकार एक एक सीट पर जातिगत समीकरणों का ‘ख़ास’ ख़याल रखा गया है.

सबसे पहले सत्तारूढ़ जनता दल (यू) के प्रत्याशियों को देखे तो 115 उम्मीदवारों में सबसे अधिक 70 उम्मीदवार पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग के है. तो अति पिछड़ा वर्ग को 40 टिकट बांटे गये हैं. अनुसूचित जाति को 17, अनुसूचित जनजाति को एक, पिछड़ा वर्ग को 30, मुसलिम को नौ, सवर्ण 16 और 23 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया गया है.

राजद ने भी पहले चरण के प्रत्याशियों के चयन में जातिगत गणित का पूरा ध्यान रखा है। अपने पुराने मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण को बनाए रखने के साथ ही पार्टी ने दलितों, अति पिछड़ों पर भी फोकस किया है. राजद ने उम्मीद के मुताबिक सर्वाधिक 19 यादव प्रत्याशी उतारे हैं.

कमोवेश यही स्थिति महागठबंधन में शामिल और महज 70 सीट पर संघर्ष कर रही कांग्रेस की भी है. कांग्रेस ने  पहले चरण के उम्मीदवारों में सवर्णों में भी सबसे अधिक उसने भूमिहार उम्मीदवारों पर बाजी लगाई है। इस जाति के सात उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। सवर्णों में दूसरे नम्बर राजपूत से पांच और ब्राह्मण से दो उम्मीदवार पार्टी ने दिये हैं। एकमात्र कायस्थ उम्मीदवार को उसने करहगर से उतारा है। 

वहीँ चार अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को टिकट दिया है। इसके लिए पार्टी ने अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित राजपुर, चेनारी, कुटुम्बा और सिकंदरा विधानसभा क्षेत्र को अपने खाते में लिया है। पिछड़ी जाति के दो उम्मीदवारों में उसने एक कहलगांव से अपने विधायक दल के नेता सदानंद सिंह के पुत्र शुभानंद मुकेश को टिकट दिया है। वह कुर्मी जाति के हैं। साथ ही युवा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष यादव जाति के ललन यादव को सुल्तानगंज से टिकट दिया है। 

बहराल इस जाति आधारित व्यवस्था को तोड़ने के लिए इस बार बिहार के रणमें पुष्पम प्रिया चौधरी नाम की नई उम्मीद मैदान में है अपने बायोडाटा में जाति वाले कालम में प्रोफेसनल और धर्म वाले कालम में बिहारी लिखकर नया मुद्दा बिहार को देने का प्रयास किया है. फिलहाल देश में मौसम की गुलाबी ठण्ड शुरू हो चुकी है लेकिन बिहार में चुनावी गर्मी के कारण उमस अपने शबाब पर है.

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