स्कूलों के रिज़ल्ट आ गए हैं। सोशल मीडिया पर जाने पहचाने लोग अपने बच्चों के साथ फोटो डालकर अपनी खुशियां बांट रहें हैं। 94, 95, 96 और यहां तक कि 100 प्रतिशत अंक लाकर भी बच्चे पास हुए हैं। उनको और उनके गौरवांवित माता पिता को बधाई। लेकिन मैं एक भी ऐसी पोस्ट नहीं देख पाया हूं जिसमें बच्चे के 50,60,70 या 80 प्रतिशत अंक आये हों और मां-बाप ने उसको शेयर किया हो। क्यों भई ये बच्चे पास नहीं हुए हैं क्या? इनकी सफलता खुशियां मनाने लायक नहीं है क्या?
मुझे अपना टाइम याद आ गया। जब पास होना ही लड्डू बांटने के लिए काफी होता था। रिजल्ट लेकर आने वाले डाकिए से लेकर पड़ोसियों के साथ खुशियां बांटी जाती थीं। 60 प्रतिशत अंक अगर किसी के आ जायें तो क्या बात थी। 95,96,97 और 100 प्रतिशत अंक तो उस ज़माने में शायद किसी को सपने में भी नहीं मिलते थे। अपने भी कुछ ऐसे ही खुश होने लायक नंबर थे। कॉलेज में एडमिशन लेने गए तो उस कॉलेज में एडमिशन मिला जिसकी प्रतिष्ठा पढ़ाई से ज़्यादा ओर गतिविधियों में थीं। पर कभी लगा नहीं कि जीवन में कुछ खत्म हो गया। वो मोदी जी कहते हैं ना कि आपदा को अवसर में बदलो, हम तो सदैव यही करते आये हैं। किसी को हमसे उम्मीद नहीं थी तो हम भी बिना किसी दबाव के अपने हिसाब से जीने लगे। अपने सपनों को अपने हौंसले से पूरा करने में लग गए। वहां हमारे जैसे कई लोग थे जो नंबरों के खेल में फेल थे लेकिन जीवन को जीने में पास थे। उन्हीं लोगों के साथ मिलकर सपनों को साकार करने की जो उड़ान शुरू हुई वो आज तक जारी है। हम जहां भी हैं अपने दायरे में खुश हैं। अपने परिवार के लिए, अपने समाज के लिए, अपने देश के लिए कार्य कर रहें हैं।
नंबर सिर्फ नंबर है। वह आपकी शैक्षिक योग्यता का तो मूल्यांकन कर सकता है (हालांकि मुझे इस पर भी संदेह है पर…)। आपकी नहीं। कॉलेज का नाम आपके जीवन में कोई ऐसा चमत्कारी परिवर्तन नहीं लाता जिसपर आपको गर्व हो। कई बार इस खेल में पीछे रहने का भी अपना लाभ है। थोड़ा रुक कर एक बार स्वयं अपना मूल्यांकन कीजिए। क्या है आपमें कुछ ऐसा जिसका मूल्यांकन अंको से नहीं हो सका है। कुछ तो होगा जिसमें आप सहज महसूस कर सकते होंगे। बस उसको पहचानिए। एक बात ध्यान रखिए सफलता या असफलता इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज जो है वो कल नहीं होगा। इसलिए 90 के नीचे वालों अब वक्त है खुद को पहचानने का, जानने का।
आजकल बच्चों के मां-बाप बहुत दबाव में रहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर 90 फीसदी से ज़्यादा अंक नहीं आये तो उनके बच्चे का क्या होगा? बच्चे से ज्यादा उन्हें इस बात की भी चिंता होती है पड़ोसी क्या सोचेंगे, रिश्तेदार क्या सोचेंगे? तो सबसे पहले तो आप अड़ोसी पड़ोसी और रिश्तेदारों की चिंता करना छोड़िए। हो सकता है कि आपके बच्चें में कुछ ऐसा हो जो उसके भविष्य के लिए बेहतर हो। आज दुनिया बदल रही है। अवसर बदल गए हैं। पढ़ लिख कर नौकरी करना ही एकमात्र लक्ष्य नहीं रह गया है। अपने बच्चों पर अपने अधूरे सपनों को पूरा करने का दबाव मत बनाइये। उसको समझिए, उसको मार्ग दिखाईये, पर खुद को उसपर थोपिए मत। दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्होंने अंको के खेल में तो मात खाई है लेकिन ज़िंदगी के खेल में विजेता हैं।
प्यारे बच्चों अंकों के खेल से बाहर निकलों… खुला आसमान है तुम्हारे उड़ने के लिए। बस अपनी पसंद का काम चुनों, ऐसा काम जो तुम्हे आनंद देता हो। ऐसा नहीं जो पैसा देता हो। पैसे के दबाव में आने की बजाय आनंद को चुनों, पैसा तो आ ही जायेगा। याद रखो… तुम्हारी खुशियों का कोई मोल नहीं है। इसलिए खुश रहों।
लेखक के 12वीं की परीक्षा में 50 प्रतिशत अंक आये थे। अंग्रेजी में लुड़क भी गए थे।