रवि पाराशर
देश में आज अजीबोगरीब माहौल है। केंद्र सरकार बड़ी साफगोई से कह रही है कि नागरिकता संशोधन कानून, 2019 में देश के नागरिकों के लिए कुछ भी अहितकर नहीं है। लेकिन सीएए का बेबुनियाद विरोध कर रही पार्टियां और कथित सामाजिक संगठन कोई बात सुनने को राजी नहीं हैं। सीएए विरोधियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के दौरान राजधानी दिल्ली में ऐसा हिंसक माहौल बना दिया कि करीब 50 लोगों की जान चली गई और हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हो गया। नारिकता मामले के केंद्र की सूची में शामिल होने के बावजूद कुछ राज्य विधानसभाओं ने सीएए के विरोध में प्रस्ताव पारित कर दिए हैं और कुछ गैर-बीजेपी राज्य सरकारें ऐसा करने का ऐलान कर चुकी हैं। हालांकि महाराष्ट्र जैसे गैर-बीजेपी शासित कुछ राज्य ऐसे भी हैं, जो प्रस्ताव पारित करने के पक्ष में नहीं हैं।
सीएए के विरोधी तर्क दे रहे हैं कि यह कानून देश के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, देश के सैकुलर फ्रैब्रिक से छेड़छाड़ करता है। सुप्रीम कोर्ट सीएए विरोधी याचिकाओं पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर चुका है और उधर केंद्र सरकार भी दो टूक कह चुकी है कि विरोधी कितना भी हो-हल्ला कर लें, वह कानून में बदलाव करने वाली नहीं है। केंद्र की यह दलील भी गले से सहज ही उतर जाती है कि सीएए से पहले कुछ पड़ोसी देशों से धार्मिक आधार पर उत्पीड़न के शिकार होकर आए वहां के अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने के स्पष्ट प्रावधान नहीं थे और सीएए बनाकर यही गफलत दूर की गई है। दूसरी बात यह है कि सीएए कोई नया कानून नहीं है। पुराने कानून में महज संसोधन किया गया है। साथ ही 1955 में बने कानून के तहत दुनिया के किसी भी देश का कोई भी व्यक्ति अगर तय शर्तें पूरी करता है, तो भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन दे सकता है।
सीएए विरोधी यह क्यों समझना नहीं चाहते कि केंद्र के विषय वाले किसी कानून के विरोध में विधानसभाओं में प्रस्ताव जारी करना ही अपने आप में संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। जब संविधान में केंद्र और राज्यों के विषयों की सूचियां अलग-अलग स्पष्ट हैं, तब लक्ष्मण रेखा के अनाधिकार उल्लंघन की जल्दी राज्यों को क्यों है? कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल और शशि थरूर भी कह चुके हैं कि अगर सीएए को सुप्रीम कोर्ट भी सही ठहरा देता है, तब उसे लागू नहीं करने की जिद पर अड़े रहना असंवैधानिक होगा। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, ऐसे में क्या राज्यों को सीएए को लेकर नकारात्मक बयानबाजी से क्या बचना नहीं चाहिए? बिल्कुल बचना चाहिए। तो फिर सड़कों पर अराजक विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं थम रहे? जाहिर है कि केंद्र में विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे पर सिर्फ मोदी विरोध की थोथी राजनीति ही कर रही हैं।
कल अगर सुप्रीम कोर्ट ने सीएए पर मुहर लगाकर एक तरह से इस कानून के संविधान सम्मत होने की बात मान ली, तब क्या होगा? उस समय अगर उग्र विरोध प्रदर्शन किए गए, तो वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना के दायरे में माने जाएंगे या फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी विरोध कर नकारात्मक राजनीति की नई परंपरा शुरू की जाएगी? वैसे राफैल विमान सौदे को सुप्रीम कोर्ट से क्लीनचिट मिलने के बाद भी 2019 के आम चुनाव में विपक्षी नेताओं, खास कर राहुल गांधी ने राफैल पर लगातार मोदी विरोध का बिगुल बजाए रखकर यह गलत परंपरा तो पहले से ही कायम कर रखी है। विपक्ष ने चुनाव प्रचार को इस कदर राफैलमय कर दिया था कि देश के लोगों ने 2014 के चुनाव से आगे जाकर भारतीय जनता पार्टी को भारी बहुमत से जिता दिया। यह सही है कि राज्यों के चुनावों में बीजेपी को झटका लगा है, लेकिन इस वजह से यह मान लेना कि देश के लोगों से सिर से मोदी मैजिक उतरता जा रहा है, कांग्रेस के लिए बड़ी राजनैतिक भूल साबित हो सकता है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट को फैसला सुनाना है कि सीएए संविधान की मूल आत्मा के अनुरूप है या नहीं। वैसे अगर संविधान की बात करें, तो इस बात की चर्चा आजकल बहुत कम या नहीं ही हो रही है कि संविधान की आत्मा और उसका मूल चरित्र अभी तक सिर्फ एक बार बड़े पैमाने पर बदला गया है। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार से ऐसा किया था। इसके लिए ऐसा समय चुना गया, जब आधे से ज्यादा विपक्षी नेता जेल में थे और बहुत से भूमिगत हो गए थे। विपक्ष की गैर-मौजूदगी में इंदिरा सरकार 42वां संविधान संशोधन विधेयक 1976 में लाईं और संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 1977 में जोड़ दिए गए। जो काम डॉ. भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व में देश के 389 सर्वाधिक प्रखर योग्यतम प्रबुद्ध जनों को मिलाकर बनी संविधान सभा को आवश्यक नहीं लगा, वह इंदिरा गांधी ने अकेले कर दिया। क्या संविधान सभा से कोई चूक हुई थी, जिसे इंदिरा गांधी ने सुधार दिया? या फिर यह उनकी राजनैतिक चतुराई या मजबूरी थी? बड़ा सवाल यह है कि संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य को संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य में बदलना क्यों ज़रूरी था? आजादी के महज करीब तीन दशक में ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार को देश के चरित्र की परिभाषा क्यों बदलनी पड़ी?
आश्चर्यजनक रूप से आपातकाल हटने के बाद भी 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के विरोध में कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ। भारत का संविधान 26 नवंबर, 1949 को पारित हुआ और 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। तब प्रस्तावना में कहा गया था कि “भारत संपूर्ण संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य” है। 42वें संविधान संशोधन के तहत प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए और “भारत संपूर्ण संप्रभुता संपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य” हो गया। प्रस्तावना बदल गई, लेकिन व्यापक अर्थ वाले ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों की परिभाषा तय नहीं की गई। इस साल बहुचर्चित 42वें संविधान संशोधन बिल को लागू हुए 43 वर्ष होने जा रहे हैं।
इस संशोधन के तहत न केवल संविधान की मूल प्रस्तावना बदल दी गई, बल्कि 40 अनुच्छेदों और सातवीं अनुसूची में बदलाव के अलावा 14 नए अनुच्छेद भी संविधान में जोड़े गए। दो नए खंड भी संविधान में जोड़े गए। पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान की स्थापना धर्म के आधार पर हुई थी, लेकिन भारत हिंदू राष्ट्र घोषित नहीं किया गया। क्या आजादी के सिर्फ 27 साल बाद इंदिरा गांधी को सियासी बोध हो गया कि दुनिया के सामने भारत को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित करना जरूरी है? या फिर इसे तुष्टीकरण की राजनीति के शुरुआती बिंदु की तरह रेखांकित किया जा सकता है?