दीपक दुआ
हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत हिल-स्टेशन धर्मशाला की चर्चा या तो एक लुभावने पर्यटन-स्थल के तौर पर होती है या फिर दुनिया के सबसे ऊंचाई पर स्थित क्रिकेट स्टेडियम के कारण। लेकिन बीते कुछ बरसों में धर्मशाला एक और कारण से भी चर्चा में आने लगा है और वह है यहां हर बरस नवंबर में होने वाला धर्मशाला अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह। फिल्मकार दंपती रितु सरीन और तेनजिंग सोनम द्वारा 2012 में शुरू किया गया यह समारोह साल में चार दिन इस छोटे-से पहाड़ी शहर को अपनी सिने-गतिविधियों से गुलजार कर देता है। इस साल 7 से 10 नवंबर तक यह फिल्म समारोह अपर धर्मशाला यानी मैक्लॉडगंज के तिब्बतियन इंस्टीट्यूट ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स में आयोजित किया गया। इस दौरान यहां देश-विदेश से आईं तकरीबन 60 छोटी-बड़ी फीचर, गैर-फीचर और डॉक्यूमैंट्री फिल्में दिखाई गईं जिन्हें देखने और दिखाने के लिए देश-विदेश से कई फिल्मकार, कलाकार, दर्शक यहां पहुंचे।
भारतीय, तिब्बती और अंतर्राष्ट्रीय संस्कृतियों के मिले-जुले वातावरण वाला यह अलसाया-सा शहर इन चार दिनों में बेहद सक्रिय हो जाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुके इस फिल्म समारोह की शुरूआत हुई पुणे फिल्म संस्थान से निकले फिल्मकार प्रतीक वत्स की हिन्दी फिल्म ‘ईब आले ऊ’ से जिसका नायक है अंजनी। नई दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में आतंक मचाने वाले बंदरों को भगाने के लिए कभी लंगूरों का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन सरकार ने लंगूरों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया जिसके बाद अंजनी और उसके जैसे लोग खुद लंगूर बन कर या लंगूर की आवाज निकाल कर बंदरों को भगाने का काम करते हैं। लिजो जोस की विवादित मलयालम फिल्म ‘जल्लीकट्टू’ इस समारोह का प्रमुख आकर्षण रही जिसे देखने के लिए लोगों ने कतारें बांध कर इंतजार किया। अर्चना अतुल फड़के की डेढ़ घंटे लंबी डॉक्यूमैंट्री ‘अबाउट लव’ ने मुंबई की 102 साल पुरानी फड़के बिल्डिंग में रह रहे फड़के परिवार के बारे में बताती है। जेसी आल्क की ‘पराहा डॉग’ कोलकाता की सड़कों पर घूमते आवारा कुत्तों की देखभाल करने वाले कुछ लोगों की जिंदगी में झांकती है। गुरविंदर सिंह की ‘खानौर’ (कड़वा अखरोट) एक सुदूर हिमालयी गांव में बसे युवा किशन के बहाने वहां के लोगों की जिंदगियों में झांकती है। विनोद उत्तेश्वर कांबले की मराठी फिल्म ‘कस्तूरी’ अपने पिता को पोस्टमार्टम में मदद करने वाले एक किशोर की जिंदगी में झांकते हुए बताती है कि कस्तूरी की खुशबू असल में इंसान के भीतर ही है लेकिन वह उसे बाहर तलाशता रहता है। अभिनेता चंदन रॉय सान्याल अपनी फिल्म ‘गधेड़ो’ के साथ यहां मौजूद दिखे तो प्रख्यात फिल्मकार सईद अख्तर मिर्जा भी यहां नजर आए।
‘गॉड एग्जिस्ट्स, हर नेम इज पेटरूनिया’ को काफी पसंद किया गया। सीरिया के हालात पर बनी और दुनिया भर में तारीफें बटोर चुकी फिल्म ‘फोर सामा’, कंबोडिया के हालात पर बनी ‘लास्ट नाइट आई सॉ यू स्माइलिंग’, पेरू देश की दशा दिखाती ‘सॉन्ग विद्आउट ए नेम’, फ्रांस से आई ‘वरदा बाय एग्नेस’, पुर्तगाल की ‘वितालिना वरेला’ किसले की हिन्दी फिल्म ‘ऐसे ही’ ने दर्शकों को खासा लुभाया। समारोह का समापन हुआ गीतांजलि राव की निर्देशित फिल्म ‘बॉम्बे रोज’ से। यह वही गीतांजलि हैं जो वरुण धवन वाली फिल्म ‘अक्टूबर’ में नायिका की मां के किरदार में अपनी अदाकारी से खासी तारीफें पा चुकी हैं। भारत के प्रख्यात फिल्म समीक्षकों की संस्था ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’के साथ मिल कर इस समारोह ने इस साल से लैंगिक संवेदनशीलता पर एक पुरस्कार भी शुरू किया है जो प्रिया सेन की हिन्दी फिल्म ‘यह फ्रीडम लाइफ’को मिला।
एक बड़े और एक छोटे हॉल में फिल्में दिखाने की व्यवस्था के साथ-साथ इस समारोह का बड़ा आकर्षण रहा सुशील चौधरी की कंपनी ‘पिक्चर टाइम’ द्वारा स्थापित एक अस्थाई थिएटर। सुशील बताते हैं कि महज दो घंटे और बहुत ही कम लागत में कहीं भी खड़ा किया जा सकने वाला यह टेंपरेरी थिएटर दर्शकों को पूरा सिनेमाई आनंद देता है। इसके अलावा यहां फिल्मकारों और कलाकारों से आमने-सामने की बातचीत और अलग-अलग विषयों पर चर्चाएं हुईं। अभिनेता आदिल हुसैन की मास्टर-क्लास के लिए तो इस कदर भीड़ जुटी कि उसे हॉल से निकाल कर छत पर शिफ्ट किया गया ताकि हर कोई उसमें शामिल हो सके।
इस फिल्म समारोह को यहीं शुरू करने के बारे में समारोह की निदेशक फिल्मकार रितु सरीन कहती हैं कि हमारा उद्देश्य इस छोटे-से शहर के निवासियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के उस वैकल्पिक सिनेमा से रूबरू करवाना था जो आमतौर पर फिल्म समारोहों के जरिए ही अपनी पहुंच बना पाता है। धर्मशाला मेरा और सोनम का घर भी है और इसी जुड़ाव के चलते ही हमने इस समारोह को यहां पर शुरू किया।